Thursday, July 17, 2014

Joshi Effect & Laser Optogalvanic Spectroscopy

                                         प्रोफेसर श्रीधर सर्वोत्तम जोशी का ‘जोशी प्रभाव’ 

                                                            सूर्य नारायण ठाकुर
                                             भौतिकी विभाग   काशी हिन्दू विश्वविद्यालय

महामना पं मदन मोहन मालवीय जी ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना शिक्षा के एक सर्वश्रेष्ठ केन्द्र के रूप में किया था तथा इस उदेश्य की पूर्ति के लिये वे सतत प्रयत्नशील रहते थे।शिक्षक के रूप मे प्रतिष्ठित करने के लिये वे उस समय के सर्वश्रेष्ठ विद्वानो से सम्पर्क स्थापित करते तथा उन्हे राष्ट्रहित में अपने विश्वविद्यालय में आने का अनुग्रह करते।मालवीय जी की आभा एवं लगन से प्रभावित होकर अत्यंत प्रतिभाशाली विद्वान अन्य सुविधासंपन्न संस्थानो की विलाशपूर्ण सेवा करने की अपेक्षा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में मालवीय जी के सपनो को साकार करने मे अपने को धन्य समझते थे।विज्ञान के क्षेत्र मे प्रतिभाशाली भारतीय युवक एवं युवतियां बीसवीं सदी के चौथे दशक तक उच्च शिक्षा के लिये यूरोप और विशेष रूप से इंगलैंड जाते थे जहां से वापस आते ही उन्हे विभिन्न प्रकार के सरकारी संस्थानो में उच्च पद मिल जाया करते थे।मालवीय जी अपने सूचना सूत्रों से प्राप्त जानकारी के आधार पर ऐसे प्रतिभाशाली वैज्ञानिकों के भारत पहुॅचने पर सम्पर्क करने वाले प्रथम व्यक्ति होते थे।
डाक्टर शान्ति स्वरूप भटनागर जब 1921 मे यूनिवर्सिटी कालेज लन्दन से रसायन विज्ञान मे डी .एस सी .की डिग्री प्राप्त करने के बाद भारत लौटे तो उन्होने मालवीय जी के आग्रह को सहर्ष स्वीकार करते हुये उस समय के सेन्ट्रल हिन्दू कालेज मे रसायन विज्ञान के प्रोफेसर के पद को गौरवान्वित किया। प्रोफेसर भटनागर को रसायन विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों की विशिष्ट जानकारी थी तथा चुम्बकीय रसायन फोटो रसायन एवं कोलायड के क्षेत्र में वे विश्व के सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिकों मे से एक थे।अपने 1921 से 1923 के कार्यकाल के दौरान प्रोफेसर भटनागर ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय को बहुत कुछ दिया।विश्वविद्यालय के कुलगीत ‘मधुर मनोहर अतीव सुन्दर यह सर्व विद्या की राजधानी’ की रचना से लेकर विज्ञान के विविध विषयों में रीसर्च की परम्परा प्रोफेसर भटनागर की ही देन है।रसायन विज्ञान तो उच्च शिक्षा एवं रीसर्च के क्षेत्र में भारत के विश्वविद्यालयों की अगली कतार मे आ खडा. हुआ।
        श्रीधर सर्वोत्तम जोशी ने 1921 में फर्गुसन कालेज पुणे से बी .एस सी .की परीक्षा उत्तीर्ण की थी जो उस समय बम्बई विश्वविद्यालय के अन्तर्गत था। प्रोफेसर भटनागर की प्रसिद्धि से प्रभावित युवा जोशी ने एम .एससी .की उच्च शिक्षा के लिये काशी हिन्दू विश्वविद्यालय मे अपना नामांकन कराया तथा शीघ्र ही अपनी प्रायोगिक प्रतिभा से अपने शिक्षकों के प्रिय पात्र बन गये।1923 मे एम .एस सी .की परीक्षा उत्तीर्ण करते करते युवा जोशी की प्रसिद्धि मालवीय जी तक पहॅुची और उन्होने इस प्रतिभाशाली छात्र से अपने विश्वविद्यालय में शिक्षक बनने का वचन ले लिया।जब डाक्टर जोशी 1928 में यूनिवर्सिटी कालेज लन्दन से रसायन विज्ञान मे डी .एस सी .की डिग्री प्राप्त करने के बाद भारत लौटे तो मालवीय जी ने उन्हे रसायन विज्ञान के प्रोफेसर पद पर आसीन कर दिया तथा प्रोफेसर जोशी विश्वविद्यालय की गरिमा में लगातार वृद्धि करते हुये 1959 तक इस पद को सुशोभित करते रहे।विज्ञान की शिक्षा देने वाले विभागों में विद्यार्थियों की संख्या में लगातार वृद्धि को देखते हुये विश्वविद्यालय प्रशासन ने 1935 में साइंस कालेज की स्थापना की।प्रोफेसर जोशी ने 1938 मे साइंस कालेज के तीसरे प्रिंसिपल के रूप मे विश्वविद्यालय मे विज्ञान के शिक्षण एवं रीसर्च के दिशा निर्देशन का गुरूतर कार्यभार संभाला तथा अपने रिटायरमेंट तक इसका सफलता पूर्वक संचालन करते रहे।प्रिंसिपल के रूप में उन्होने साइंस कालेज के विभिन्न विभागों में उत्कृष्ट शिक्षण के लिए प्रयोगशालाओं को अत्याधुनिक सुविधा से संपन्न कराने के साथ रीसर्च प्रयोगशालाओं की स्थापना करने का अति महत्वपूर्ण कार्य किया।प्र्रिंसिपल जोशी ने 1939 में डाक्टर असुन्डी का भौतिकी के प्रोफेसर पद पर चुनाव कर स्पेक्ट्रोस्कोपी प्रयोगशाला की स्थापना की जो इस वर्ष  अणु परमाणु एवं लेजर के उत्कृष्ट केन्द्र के रूप में अपनी हीरक जयन्ती मना रहा है।  1940 के दशक में स्पेक्ट्रोस्कोपी के कई शोध कत्र्ताओं ने प्रकाश द्वारा अणुओं पर अनुसंधान में ‘जोशी प्रभाव’ का प्रयोग किया।1970 के दशक में विभिन्न तरंगदैघ्र्य के प्रकाश उत्पन्न करने वाले लेजर स्त्रोत के विकास के बाद ‘जोशी प्रभाव’ का उपयोग लेजर आप्टोगैल्वानिक स्पेक्ट्रोस्कोपी के रूप में बहुत प्रभावशाली रहा है।इस लेख में हम प्रोफेसर जोशी के रीसर्च एवं व्यक्तित्व के साथ ही आधुनिक समय में लेजर आप्टोगैल्वानिक स्पेक्ट्रोस्कोपी का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करेंगे।
 
                                               प्रोफेसर श्रीधर सर्वोत्तम जोशी 1898  1984

विद्युत धारा एवं जोशी प्रभाव

जोशी प्रभाव या जोशी इफेक्ट गैस मे विद्युत धारा के प्रवाह से संबंधित है अतः इसे समझने के लिये बिजली की खोज एवं उपयोग के बारे मे कुछ मूलभूत जानकारी रखना जरूरी है।बहुत प्राचीन समय से लोग बादलों की गड़गड़ाहट के बीच आकाशीय बिजली की चमक से भलीभांति परिचित थे।आकाशीय बिजली के पृथ्वी की सतह के संपर्क मे आने पर जीव तथा बनस्पति के जल जाने का खतरा रहता है।इस प्रकार आम आदमी के लिये विद्युत एक दैवी शक्ति या आपदा के रूप मे डर उत्पन्न करने वाली चीज थी।लोग इस बात से भी परिचित थे कि शीशे की छड़ को या सर के बालों को सिल्क के टुकड़े से रगड़ने पर शीशे की छड़ तथा सर के बाल विद्युत से आवेशित हो जाते हैं।सर के बालों को सिल्क से रगड़ने के दौरान स्पार्क की सी चमक दिखायी पड़ती है तथा शीशे की छड़ छोटे छोटे कागज के टुकड़ों को आकर्षित करने लगती है।इस प्रकार की विद्युत को स्थिर विद्युत का नाम दिया गया मगर आकाशीय विद्युत से इसके सम्बन्ध के बारे मे कोई जानकारी नही थी।
18 वीं सदी के आरम्भ मे फ्रॉस तथा अमेरिका के कुछ जिज्ञासु लोगों ने आकाशीय विद्युत के बारे मे जानकारी प्राप्त करने के उद्देश्य से प्रयोग करना शुरू किया था।इस कड़ी मे अमेरिका के बेन्जामिन फ्रैंकलिन का नाम सर्व प्रमुख है। बेन्जामिन फ्रैंकलिन का जन्म सन 1706 मे हुआ था तथा वे अपने समय के सर्वाधिक प्रसिद्व अमेरिकन एवं दुनिया  के  सर्वकालीन महान विभूतियों मे से एक हैं।वे पेशे से प्रिन्टर थे तथा प्रकृति के रहस्यों को सुलझाने वाले वैज्ञानिक के रूप मे उन्होने अपनी पहचान बनायी थी।उन्होने न केवल सॅयुक्त राज्य अमेरिका को एक राष्ट्र के रूप मे स्थापित करने मे अहम भूमिका निभाई बल्कि वहॉ के निवासियों मे एक नई विचारधारा एवं कार्यपद्वति का भी विकास किया जिसकी वजह से अमेरिका आज एक अत्यन्त समृद्ध राष्ट्र है। बेन्जामिन फ्रैंकलिन ने वेैज्ञानिक शोध द्वारा मानव जीवन के लिये उपयोगी एवं कल्याणकारी उपकरणो के निर्माण की परम्परा की नींव डाली जिसे थामस एडिसन एवं ग्राहम बेल ने आगे बढ़या तथा आज के अमेरिकन वैज्ञानिक भी उसी परम्परा का अनुसरण करते दिखाई देते हैं।जून 1752 मे बेन्जामिन फ्रैंकलिन ने अपने 21 वर्षीय पुत्र कीे सहायता से प्रयोग करके सिल्क की बनी हुई पतंग को उड़ाते हुये बादलों के सम्पर्क मे लाकर आकाशीय विद्युत को अपनी प्रयोगशाला के उपकरणों मे एकत्र किया।उन्होने अपने शोध के द्वारा न केवल आकाशीय विद्युत और स्थिर विद्युत की एकरूपता की पहचान की बल्कि यह सत्य भी स्थापित किया कि आकाशीय विद्युत को विद्युत धारा के रूप मे बादलों से जमीन पर लया जा सकता है।
विद्युत धारा पर सर्वाधिक प्रयोग करने तथा मानव जीवन मे बिजली के उपयोग के लिये जिम्मेदार अगर किसी एक वैज्ञानिक का नाम लेना हो तो वह होंगे माइकेल फैराडे।1791 मे जन्मे माइकेल की स्कूली शिक्षा गरीबी की वजह से अधूरी रही मगर 14 वर्ष की उम्र मे बुक बाइन्डर सहायक के रूप मे काम करते हुए उन्होने स्वाध्याय द्वारा अपना ज्ञान वद्र्धन किया।इसी दौरान वे उस समय के महान रसायन विज्ञानी हम्फ्रे डेवी के सम्पर्क मे आये जिनके साथ काम करते हुए उनकी पहचान एक रसायन वैज्ञानिक के रूप मे हुई।वास्तव मे माइकेल फैराडे एक प्रकृति विज्ञानी अथवा नेचुरल फिलासफर थे तथा विज्ञान के अब तक के इतिहास मे वे अकेले सबसे अधिक प्रयोग सम्पादित करने वाले वैज्ञानिक हुए हैं।विद्युत धारा के रासायनिक प्रभावों के अलावा उन्होने विद्युत के चुम्बकीय प्रभावों का गहन अध्ययन किया जिसके आधार पर डाइनेमो ट्रांसफार्मर तथा विद्युत मोटर के आविष्कार संभव हुए।सन 1831 से 1835 के बीच फैराडे ने अतिशय निम्न दाब पर शीशे की नलिका मे स्थित वायु मे बिजली के प्रवाह का अध्ययन किया।इन प्रयोगों के लिये बन्द तथा निर्वातित नलिका के भीतर दोनो किनारों पर धातु के इलेक्ट्रोड लगे थे जिनके बीच 1000 वोल्ट तक का विद्युत विभव लगाया जा सकता था।शीशे की नलिका मे स्थित वायु से विद्युत प्रवाहित होने पर काली पट्टी जैसे क्षेत्रों द्वारा अलग किये हुए विभिन्न लम्बाई के प्रकाशित क्षेत्र नलिका की पूरी लम्बाई मे फैल जाते थे जिनका आकार तथा चमक वायु के दाब पर निर्भर होते थे।फैराडे ने गैस नली से उत्सर्जित प्रकाश का नामकरण ग्लो डिस्चार्ज किया तथा यह पाया कि गैस का दाब क्रमशः कम करने पर प्रकाश निकलना बन्द हो जाता है मगर विद्युत धारा फिर भी प्रवाहित होती रहती है।इस स्थिति का नामकरण उन्होने ‘अदीप्त धारा’ किया।1858 मे प्लकर ने 0 .01 मिलिमीटर पारे के दाब पर कैथोड किरणो को निकलते देखा जो शीशे की नलिका की दीवार पर पड़ने के बाद हरे रंग का प्रकाश उत्पन्न करती थीं।बाद के प्रयोगों से यह पता चला कि डिस्चार्ज नलिका मे कोई भी गैस भरने पर एक ही प्रकार की कैथोड किरणें निकलती हैं तथा 1891 मे स्टोनी ने इन किरणों की पहचान ऋण आवेशित विद्युत कणों के रूप मे किया और इस कण का नाम इलेक्ट्रान रखा।1897 मे जोसेफ जान थामसन ने इलेक्ट्रान के आवेश एवं द्रव्यमान का विस्तृत अध्ययन कर यह सिद्ध किया कि सभी तत्वों के परमाणु की संरचना का इलेक्ट्रान एक मूल कण है जिसके लिये उन्हे 1906 के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
बीसवीं सदी के प्रथम चार दशकों तक डिस्चार्ज नलिकाओं का प्रयोग विभिन्न प्रकार के परमाणुओं एवं अणुओं के स्पेक्ट्रम प्राप्त करने तथा उनके द्वारा संचालित विद्युत धारा के अध्ययन के लिये किया जाता रहा।इसी क्रम मे प्रोफेसर जोशी ने 1929 से 1943 के बीच काशी हिन्दू विश्वविद्यालय मे किये गये प्रयोगों के आधार पर जोशी इफेक्ट का प्रतिपादन किया जिसे निम्नलिखित रूप मे व्यक्त किया जा सकता हैः
“जब किसी डिस्चार्ज नलिका पर बाहरी प्रकाश डाला जाता है तो उसमे प्रवाहित होने वाली विद्युत धारा मे धनात्मक अथवा ऋणात्मक परिवर्तन हो जाता है।”

प्रोफेसर जोशी की प्रयोगशाला

लन्दन मे अपने डी .एस सी .शोध के दौरान प्रोफेसर जोशी ने डिस्चार्ज नलिकाओं का प्रयोग गैसिय अवस्था मे सम्पन्न होने वाली रासायनिक क्रियाओं का अध्ययन करने के लिये किया था।उन्होने विशेष रूप से नीरव या साइलेंट विद्युत डिस्चार्ज द्वारा नाइट्रस आक्साइड के विघटन का विस्तृत अध्ययन किया तथा अपने प्रयोगों के परिणाम 1927 से 1929 के बीच ट्रांजैक्सन्स फैराडे सोसायटी के करीब आधे दर्जन शोध पत्रो मे प्रकाशित किया।इसमे रासयनिक क्रिया की गति तथा उस पर बाह्य गैसों के प्रभाव के अलावा रासायनिक क्रिया के दौरान विद्युत धारा मे हुये परिवर्तन के बारे मे भी अति महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त की गयी थी।
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय मे अपने आगमन के साथ ही प्रोफेसर जोशी ने रसायन विभाग मे यूनिवर्सिटी कालेज लन्दन की तर्ज पर प्रयोगशाला स्थापित करना शुरू कर दिया था।प्रोफेसर जोशी ने लन्दन मे गैसिय अवस्था मे रासायनिक क्रियाओं का अध्ययन करने के लिए डिस्चार्ज नलिका का उपयोग किया था।उनमे से एक रासायनिक क्रिया मे हाइड्रोजन तथा क्लोरीन गैसों के संयोग से हाइड्रोजन क्लोराइड गैस बनने की गति का अध्ययन भी शामिल था।जब काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की अपनी प्रयोगशाला मे उन्होने इस अनुसंधान को जारी रखने की मंशा अपने वरिष्ठ सहयोगियों के समक्ष रखी तो बहुतेरे लोगों ने ऐसा न करने की सलाह दिया।इसका कारण हाइड्रोजन तथा क्लोरीन गैसों का प्रकाश की उपस्थिति मे विस्फोटक होना था।अगर प्रकाश के साथ साथ विद्युत की भी उपस्थिति हो तो इस रासायनिक क्रिया मे विस्फोट होने की संभावना अधिक बढ़ जाती है। प्रोफेसर जोशी को प्रयोग करने की अपनी क्षमता एवं कुशलता पर इतना विश्वास था कि अपने वैज्ञानिक मित्रों की नेक सलाह के बावजूद उन्होने उपरोक्त अनुसंधान को आगे बढ़ाने का फैसला किया।रासायनिक क्रियाः  H2 +  Cl2 → 2HCl   जब होने लगती है तो डिस्चार्ज नलिका मे अधिक इलेक्ट्रान बन्धुता वाली Cl2 की जगह कम इलेक्ट्रान बन्धुता वाली HCl  की प्रचुरता बढ़ जाती है।इस जानकारी के अनुसार रासायनिक क्रिया प्रारम्भ होने से पहले की अपेक्षा बाद मे डिस्चार्ज नलिका के भीतर इलेक्ट्रान की प्रचुरता बढ़ने से उसकी विद्युत धारा मे बढ़ोतरी होनी चाहिये।इसके विपरीत विद्युत धारा के मान मे कमी दर्ज की गयी तथा डिस्चार्ज के भीतर अति क्षीण तीव्रता का लाल प्रकाश दिखाई पड़ा।इस अध्ययन द्वारा किसी निश्चित निष्कर्ष तक पहॅुचने के लिए शुद्ध क्लोरीन गैस मे विद्युत धारा प्रवाहित कर डिस्चार्ज उत्पन्न किया गया तथा नलिका पर बाहर से प्रकाश डाला गया।बाह्य प्रकाश के पड़ते ही डिस्चार्ज नलिका मे विद्युत धारा कम हो गयी तथा प्रकाश की तीव्रता बढ़ाने पर एक ऐसी स्थिति आयी कि विद्युत धारा शून्य हो गयी।जब बाह्य प्रकाश बन्द कर दिया गया तो विद्युत धारा पूर्ववत अंधेरी अवस्था के बराबर हो गयी।इस प्रयोग से यह सिद्ध हो गया कि अंधेरी हालत मे डिस्चार्ज नलिका मे प्रवाहित होने वाली विद्युत धारा बाह्य प्रकाश की एक खास तीव्रता होने पर शून्य हो जाती है।जोशी प्रभाव की ऋणात्मक Δi  की इस खोज ने उस समय के भारतीय वैज्ञानिक जगत मे काफी हलचल मचायी। प्रोफेसर जोशी ने करीब दस वर्ष के अनवरत परिश्रम के बाद बहुत विचार विमर्श के बाद अपने अनुसन्धान के परिणाम 1939 मे एक संक्षिप्त पत्र के रूप में [1] तथा एक वर्ष बाद पूरे विवरण के साथ [2] भारत के अग्रगण्य जर्नल करेन्ट साइन्स मे प्रकाशित किया।भारतीय वैज्ञानिकों के समक्ष उन्होने 1943 की भारतीय साइन्स कॉग्रेस अधिवेशन मे रसायन विज्ञान के अध्यक्ष पद से बोलते हुये जोशी प्रभाव का वर्णन किया था।प्रोफेसर जोशी ने बाह्य प्रकाश द्वारा डिस्चार्ज नलिका मे विद्युत धारा के घटाव की निम्नलिखित त्रिस्तरीय विवेचना प्रस्तुत की थीः
डिस्चार्ज की दशा मे शीशे की नलिका की सतह पर उत्तेजित अवस्था के परमाणु आयन एवं इलेक्ट्रानो की एक तह जम जाती है।
शीशे की सतह पर जमी क्रियाशील या एक्टिव तह द्वारा उत्सर्जित इलेक्ट्रानो की वजह से Δi धनात्मक होती है।
डिस्चार्ज नलिका मे उपस्थित अधिक इलेक्ट्रान बन्धुता के अणुओं एवं परमाणुओं द्वारा स्वतंत्र इलेक्ट्रानो को पकड़ लिये जाने से Δi  ऋणात्मक होती है।

जोशी प्रभाव में विद्युत धारा का मापन

प्रोफेसर जोशी द्वारा प्रयुक्त विभिन्न प्रकार की डिस्चार्ज नलिकायें चित्र 1 मे प्रदर्शित की गयीं हैं।चित्र 1A मे अंग्रेजी अक्षर यू के आकार की सीमेन्स कम्पनी की ओजोनाइजर डिस्चार्ज नलिका मे दोनो इलेक्ट्रोड नलिका के बाहर हैं जबकि चित्र 1B  की बेलनाकार गीगर मूलर काउन्टर मे प्रयुक्त होने वाली नलिका मे एक इलेक्ट्रोड नलिका के अन्दर लगा है। चित्र 1C मे एक अन्य डिजाइन की बाह्य इलेक्ट्रोड वाली नलिका दिखाई गयी है तथा चित्र 1D मे गिसलर डिस्चार्ज नलिका प्रदर्शित है जिसमे धातु के समान्तर पट्टिका वाले आन्तरिक इलेक्ट्रोड लगे हैं।इन सभी डिस्चार्ज नलिकाओं की विशेषता है कि कम दाब की गैस भरने के बाद इन्हे सील कर दिया गया है।इनके अतिरिक्त ऐसी डिस्चार्ज नलिकायें भी प्रयुक्त की जाती थीं जिनको निर्वात उत्पन्न करने वाले पम्प से जोड़ कर रखा जाता था जिसमे गैस का दाब इच्छानुसार कम या अधिक किया जा सकता था।

                   चित्र 1 जोशी प्रभाव के अध्ययन मे प्रयुक्त विभिन्न प्रकार की डिस्चार्ज नलिकायें

                 
                               चित्र 2  जोशी प्रभाव के लिये विद्युत धारा मापन की तीन विधियां

         जोशी प्रभाव के अध्ययन के लिये तीन प्रकार से मापन किये जाते थे जिन्हे समन्वित रूप मे चित्र 2 द्वारा प्रदर्शित किया गया है।काउन्टर द्वारा मापन के लिए विद्युत धारा का मार्ग α से हो कर जाता है जबकि गैल्वानोमीटर द्वारा मापन के लिये यह मार्ग β से तथा आसिलोस्कोप द्वारा मापन के लिये γ से दिखाया गया है।चित्र 1A एवं 1B मे प्रदर्शित डिस्चार्ज नलिकायों को उपयोग मे लाते समय उनके भीतरी इलेक्ट्रोड को स्थायीकृत विद्युत सप्लाई के धनात्मक उच्च वोल्टेज से जोड़ दिया जाता था तथा दूसरे इलेक्ट्रोड को ग्राउन्ड कर दिया जाता था। डिस्चार्ज नलिका पर प्रकाश पड़ने तथा न पड़ने दोनो ही स्थितियों मे उच्च धनात्मक सिरे से जुड़े केैपिसिटर से छनकर निकलने वाली विद्युत धारा का मापन काउन्टर S मे एम्ल्पीफायर A द्वारा प्रवर्धित करने के बाद होता था।चित्र 1A, 1B, 1C मे प्रदर्शित डिस्चार्ज नलिकाओं मे उत्पन्न विद्युत धारा का गैल्वानोमीटर द्वारा मापन करते समय उनके इलेक्ट्रोड को कम फ्रिक्वेन्सी के ट्रान्सफार्मर से जोड़ दिया जाता था और सिल्वेनिया क्रिस्टल IN34 से रेक्टिफाइड धारा गैल्वानोमीटर मे प्रवाहित होती थी। आसिलोस्कोप द्वारा विद्युत धारा की शक्ल मापन के समय कार्बन के उचित प्रतिरोधक का उपयोग करके उसके तरंग की आकृति तथा कला को सन्तुलित रखा जाता था।
         प्रकाश की उपस्थिति मे मापित विद्युत धारा iL तथा प्रकाश की अनुपस्थिति मे मापित धारा iD होने पर जोशी प्रभाव का मान Δi = iL- iD से प्रदर्शित किया जाता था। जोशी प्रभाव को प्राप्त करने के लिये 15 सेन्टीमीटर लम्बी डिस्चार्ज नलिका मे 30 डिग्री सेन्टीग्रेड पर पारे के 120 मिलिमीटर दाब पर क्लोरीन गैस भरी गयी जिसे 30 सेन्टीमीटर की दूरी पर रखे गये 200 वाट तथा 220 वोल्ट वाले टंग्सटन फिलामेंट के बल्ब से प्रकाशित किया जा सकता था। डिस्चार्ज नलिका के दोनो इलेक्ट्रोड के बीच लगे विद्युत विभव का मान 4 हजार वोल्ट से बढ़ाकर 8 हजार वोल्ट तक करने मे जोशी प्रभाव प्रदर्शित करने वाली विद्युत धारा Δi का मान पहले धनात्मक और बाद मे ऋणात्मक पाया गया।प्रकाश की सबसे कम तीव्रता के लिये जिस विद्युत विभव पर जोशी प्रभाव धनत्मक से ऋणात्मक होता था उसे ‘प्रतिलोमन विभव’ Vi का नाम दिया गया। डिस्चार्ज नलिका पर लगे विद्युत विभव को बढ़ाने पर प्रकाश की सबसे कम तीव्रता के लिये एक ऐसी स्थिति आती थी जिसमे प्रकाश की उपस्थिति मे नलिका मे डिस्चार्ज होता था और ज्योंही नलिका पर प्रकाश पड़ना बन्द होता था त्योंही डिस्चार्ज रूक जाता था।यह विभव Vm प्रतिलोमन विभव Vi से कम होता था।यह भी देखा गया कि अगर डिस्चार्ज नलिका पर लगे विद्युत विभव का मान Vm और Vi के बीच स्थिर रखते हुए उस पर पड़ने वाले प्रकाश की तीव्रता मे परिवर्तन किया जाये तो विद्युत धारा Δi मे धनात्मक से ऋणात्मक या इसके विपरीत बदलाव पाया जाता था।इन प्रयोगों से यह सिद्ध हो गया कि कुछ खास परिस्थितियों मे बिना बाहरी प्रकाश की उपस्थिति के नलिका के दोनो इलेक्ट्रोड के बीच विद्युत विभव विद्यमान होने के बावजूद भी उसमे डिस्चार्ज नही संभव था।
1950 तथा 1960 के दशक में बहुत से वैज्ञानिकों ने जोशी प्रभाव पर कई प्रकार के योगदान किये [3-8] मगर धनात्मक एवं ऋणात्मक जोशी प्रभाव के दृष्टिकोण से काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में भौतिकी के प्रोफेसर खस्तगीर की प्रयोगशाला का कार्य विशेष रूप से उल्लेखनीय है [4]।इस कार्य मे प्रयुक्त उपकरण चित्र 3 में दिखाया गया है जहां चित्र 1 में प्रदर्शित डिस्चार्ज नलिका C का प्रयोग हुआ है जिसमे केवल दो बाहृय इलेक्ट्रोड 8.5 सेन्टीमीटर की दूरी पर लगे हैं।डिस्चार्ज नलिका की लंबाई 15 सेन्टीमीटर तथा व्यास 1.8 सेन्टीमीटर था और उसमे रखी आयोडिन गैस का 40 डिग्री सेन्टीग्रेड तापक्रम पर दाब 3 मिलिमीटर था।  
   
चित्र 3  बाहरी इलेक्ट्रोड वाली डिस्चार्ज नलिका में उच्च ए सी वोल्टज पर गैल्वानोमीटर एवं आसिलोस्कोप द्वारा जोशी प्रभाव मापन में प्रयुक्त उपकरणः              डिस्च्चर्ज नलिका (D) वोल्टेज परिवर्तक (K) वोल्टमीटर (V) उच्च वोल्टेज ए एफ ट्रान्सफार्मर (T1) डिस्च्चार्ज विद्युत धारा मापन के लिए ए एफ ट्रान्सफार्मर (T2) वाल्व अथवा जर्मेनियम क्रिस्टल डिटेक्टर (DET) गैल्वानोमीटर (G)         

           
        चित्र 4 जोशी प्रभाव मे विद्युत विभव पर आश्रित धनात्मक एवं ऋणात्मक विद्युत धारा Δi

प्रोफेसर खस्तगीर एवं सेठी के प्रयोग में मापी गयी विद्युत धारा iL, iD.  एवं जोशी प्रभाव के कारण विद्युत धारा में परिवर्तन Δi = iL- iD  कों चित्र 4 मे दिखाया गया है।इस प्रयोग में डिस्चार्ज वोल्टेज 1800 वोल्ट से उपर रखने पर कोई जोशी प्रभाव नही पाया गया 700 और 1800 वोल्ट के बीच ऋणात्मक जोशी प्रभाव तथा 500 और 700 वोल्ट के बीच धनात्मक जोशी प्रभाव पाया गया। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि उपरोक्त प्रयोग में आयोडिन वाष्प के लिये ‘प्रतिलोमन विभव’ Vi 700 वोल्ट है।

जोशी प्रभाव की विशेषताएॅ

जोशी प्रभाव विद्युतचुम्बकीय स्पेक्ट्रम की इन्फ्रारेड से लेकर गामा तरंगो तक सभी प्रकार की किरणों  के लिये संभव है।
जोशी प्रभाव का धनात्मक से ऋणात्मक परिवर्तन केवल बाह्य प्रकाश की तीव्रता बदलने से संभव है।
जोशी प्रभाव का मान बाह्य प्रकाश के उच्च विभव वाले इलेक्ट्रोड के पास पड़ने पर सर्वाधिक तथा निम्न विभव वाले इलेक्ट्रोड के पास पड़ने पर सबसे कम होता है।इन दोनो क्षेत्रों के बीच मे इसका मापन अत्यधिक कठिन है लेकिन एक्सरे एवं गामा रे के लिये इसे डिस्चार्ज नलिका के सभी भागों मे आसानी से मापा जा सकता है।
जोशी प्रभाव का मान तथा चिन्ह दोनो ही इलेक्ट्रोड की सतह की परिस्थिति के अनुसार बदलते रहते हैं जिससे यह धारणा बनती है कि यह प्रभाव गैस एवं इलेक्ट्रोड के अन्तरापृष्ठ पर भी निर्भर है।
डिस्चार्ज नलिका का तापक्रम बढ़ाने पर धनात्मक प्रभाव के मान मे बढ़ोतरी होती है मगर ऋणात्मक प्रभाव घट जाता है।

जोशी प्रभाव एवं लेजर आप्टोगैल्वानिक स्पेक्ट्रोस्कोपी

सन 1960 मे लेजर के आविष्कार की वजह से प्रकाश भौतिकी के शोध क्षेत्र मे भारी उछाल देखने को मिला।लेसर प्रकाश का शुद्ध एकवर्णी होना तथा इसकी अत्यधिक तीव्रता उन क्षेत्रों के लिए वरदान साबित हुई जिनमे साधारण प्रकाश स्रोतों द्वारा प्रकाशजनित प्रभाव अतिशय क्षीण पाये गये थे।इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण भारतीय महान वैज्ञानिक चन्द्रशेखर वेंकट रामन का 1928 मे खोजा गया रामन प्रभाव है।रामन प्रभाव मे अणुओं से प्रकीर्णन के लिए एकवर्णी प्रकाश की जरूरत होती है और साधारण प्रकाश स्रोत से प्राप्त एकवर्णी प्रकाश की तीव्रता बहुत ही कम होती है।इसका फल यह हुआ कि अणुओं का रामन प्रकीर्णन स्पेक्ट्रम प्राप्त करने मे 24 से 72 घन्टे तक का समय लग जाता था। 1950 के दशक तक वैज्ञानिकों मे यह विचारधारा व्याप्त हो चली थी कि सैद्धांतिक तौर पर अपार संभावनायें होने के बावजूद रामन प्रभाव का उपयोग संभव नही था।आज लेजर प्रकाश द्वारा न केवल रामन स्पेक्ट्रम मात्र कुछ सेकेण्ड मे प्राप्त हो जाता है बल्कि रासायनिक क्रियाओं से लेकर जीव विज्ञान तथा सभी पकार की इण्डस्ट्री से लेकर सेना एवं राष्ट्रीय सुरक्षा तक का शायद ही कोई क्षेत्र हो जो इसका उपयोग न करता हो।लेजर के आविष्कार का असर जोशी प्रभाव की प्रगति पर भी पड़ा मगर दुर्भाग्यवश इस प्रगति के दौरान प्रोफेसर जोशी का नाम गुम हो गया और वह आप्टोगैल्वानिक प्रभाव से महिमामंडित हो गया।वैज्ञानिकों के भारी समूह मे स्पेक्ट्रोस्कोपी के विश्वविख्यात ज्ञाता आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जार्ज सीरीज अकेले व्यक्ति हैं जिन्होने इस संदर्भ मे सर्वप्रथम प्रोफेसर जोशी द्वारा किये गये शोध का उल्लेख किया है [9] । पेनींग ने 1928 में प्रयोगों के दौरान पाया था कि नियान एवं आर्गन गैस के मिश्रण वाली डिस्चार्ज नलिका में डिस्चार्ज प्रारंभ करने के लिये लगने वाला विद्युत विभव उस नलिका पर एक बाहरी नियान गैस की डिस्चार्ज नलिका से पड़ने वाले प्रकाश की उपस्थिति में बदल जाता था [10]। नियान एवं आर्गन गैस के मिश्रण वाली डिस्चार्ज नलिका में डिस्चार्ज प्रारंभ करने के लिये विद्युत विभव का यह अन्तर चित्र 5 में दिखाने की कोशिश की गयी है।इस प्रकार से प्रकाश जनित विद्युत डिस्चार्ज में परिवर्तन को ‘आप्टो गैलवानिक प्रभाव’ कहा जाता है।
           
चित्र  5 बायीं ओर की डिस्चार्ज नलिका से उत्सर्जित प्रकाश पडने की स्थिति में दाहिनी नलिका मे डिस्चार्ज प्रारंभ होने के लिये आवश्यक विद्युत विभव का मान बदल जाता है

        सन 1976 से 1978 के बीच अमेरिका के वाशिंग्टन शहर मे तब के नेशनल ब्यूरो आफ स्टैण्डर्डस (वर्तमान NIST) के वैज्ञानिकों ने डाई लेजर से विभिन्न तरंगदैघ्र्य के एकवर्णी प्रकाश के प्रभाव का गैसिय डिस्चार्ज पर सघन अध्ययन किया [11,12]।आधुनिक इलेक्ट्रानिक उपकरणों की मदद से डिस्चार्ज की विद्युत धारा मे होने वाले अति क्षीण परिवर्तन का मापन संभव हो सका।जोशी प्रभाव की ही भांति इन प्रयोगों मे भी धनात्मक एवं ऋणात्मक दोनो ही तरह के परिवर्तन पाये गये।नियान आर्गन तथा अन्य गैसों के स्पेक्ट्रम से प्राप्त अपार आंकड़ों के आलोक मे विस्तृत विवेचना की गयी तथा इसे आप्टोगैल्वानिक प्रभाव जनित स्पेक्ट्रोस्कोपी का नाम दिया गया।डिस्चार्ज नलिका में स्थित गैसिय परमाणुओं  (या अणुओं)  द्वारा आप्टोगैल्वानिक प्रभाव में विद्युत धारा का बढ़ना अथवा घटना इस बात पर निर्भर करता है कि प्रकाश द्वारा इनके किस उर्जा स्तर में जनसंख्या बढ़ती अथवा घटती है। अब तक के अनुसन्धान से यह सुनिश्चित हो गया है कि प्रकाश पड़ने पर डिस्चार्ज नलिका की विद्युत धारा मे परिवर्तन होने का मुख्य कारण उसमे अपने विभिन्न उर्जा स्तरों मे उपस्थित परमाणुओं तथा अणुओं द्वारा आपतित प्रकाश का अवशोषण ही होता है।जब परमाणु या अणु उचित तरंगदैघ्र्य के प्रकाश को अवशोषित कर अपने किसी उच्च उर्जा स्तर मे पहॅुचता है तो वह इस अतिरिक्त उर्जा को एक अथवा अधिक फोटान के  उत्सर्जन द्वारा प्रकाश मे परिवर्तित कर देता है या पुनः प्रकाश के अवशोषण द्वारा अथवा अन्य कणों से टक्कर के कारण आयनित हो जाता है।आयनन की यह संभावना उक्त उच्च उर्जा स्तर की स्थिति एवं उसके जीवनकाल पर निर्भर करती है।अगर प्रकाश के अवशोषण के बाद वाले उर्जा स्तर से आयनन की दर परमाणु के पहले वाले उर्जा स्तर से आयनन की दर से अधिक होती है तो प्रकाश के कारण डिस्चार्ज विद्युत धारा मे धनात्मक तथा विपरीत स्थिति होने पर ऋणात्मक परिवर्तन होता है।
          लगातार तरंगदैघ्र्य बदलने की क्षमता वाले डाई लेजर के प्रयोग से उत्सर्जित प्रकाश के परमाणु द्वारा अवशोषण द्वारा  उसका संक्रमण उसके किसी भी निम्न उर्जा स्तर से उच्च उर्जा स्तर में संभव है।चित्र 6 में परमाणु की निम्नतम उर्जा स्तर तथा दो उच्च उर्जा स्तर प्रदर्शित किये गये हैं जिसमे उर्जा का मान दायीं ओर तथा प्रत्येक के परमाणु संख्या का घनत्व बायीं ओर दिखाया गया है।
               
                      
चित्र 6 परमाणु का आंशिक उर्जा स्तर चित्रण जहां उर्जा का मान (E)  तथा प्रत्येक उर्जा स्तर में तापीय साम्यावस्था में परमाणु संख्या का घनत्व (n) दिखाया गया है जहां उपर की ओर मुंह वाले तीर से अवशोषण एवं नीचे मुंह वाले तीर से उत्सर्जन द्वारा परमाणु का Ei और Ej के बीच संक्रमण प्रदर्शित किया गया है

          एकवर्णी लेजर प्रकाश की उपस्थिति में परमाणुओं के रेजोनेन्ट अवशोषण के चलते Ei एवं Ej उर्जा स्तरों का जनसंख्या घनत्व अचानक बदल जाता है जिसका समय के साथ बदलाव एक बहुलीकरण घटक K द्वारा व्यक्त किया जा सकता है। आप्टोगैल्वानिक प्रभाव में डिस्चार्ज नलिका के प्लाज्मा की साम्यावस्था में हुए परिवर्तन को विद्युत सर्किट में जुड़े बाह्य अवरोधक R के दो सिरों के बीच उत्पन्न वोल्टज परिवर्तन ΔV द्वारा वापस लाया जाता है जहां K का मान 1 होता है। आप्टोगैल्वानिक प्रभाव द्वारा उत्पन्न इस वोल्टेज परिवर्तन को निम्नलिखत समीकरण से व्यक्त किया जा सकता है
                        ΔV = -βΣaiΔni                                                         (1)

जहां    β = (δK/δV)-1  >0  और  ai = δK/δni,  aj>ai  यदि  Ej>Ei

डिस्चार्ज की साम्यावस्था में सभी Δni=0 जिसकी वजह से ΔV=0 होता है।यदि यह मान लिया जावे कि डिस्चार्ज में स्थित परमाणुओं से क्षणिक एकवर्णी प्रकाश के फोटान के टक्कर का समय t=0 है तो Ei और Ej  के बीच परमाणुओं के प्रेरित संक्रमण की वजह से इनकी जनसंख्या घनत्व में परिवर्तन के बीच निम्नलिखित संबंध होते हैं।
Δni(0) = -Q(ni-nj),  Δni(0)= -Δnj(0) और Δnk =0 सभी अन्य उर्जा स्तरों के लिए जहां k≠i, j  वाला संबंध लागू होता है
यदि Ei और Ej के जीवनकाल क्रमशः τi और τj हों तो इन उर्जा स्तरों के जनसंख्या घनत्व में सामयिक परिवर्तन क्रमशः Δni(t)= Δni(0)exp(-t/τi) और Δnj(t)= Δnj(0)exp(-t/τj) होगा।अतः समीकरण 1 के आलोक में आप्टोगैल्वानिक प्रभाव द्वारा उत्पन्न वोल्टेज का सामयिक परिवर्तन निम्न प्रकार से व्यक्त किया जा सकता हैः
                  ΔV(t) = -βQ(ni-nj)[aj exp(-t/τj)-ai exp(-t/τi)]                    (2)       
          
उर्जा स्तर Ei तथा Ej के जीवनकाल में अन्तर के कारण दो प्रकार के आप्टोगैल्वानिक प्रभाव संभव हैं। दोनो उर्जा स्तरों का जीवनकाल बराबर (τi = τj = τ) होने की स्थिति में
               ΔV(t) = -βQ(ni-nj)[aj -ai] exp(-t/τ)= [-ve] exp(-t/τ)

क्योंकि aj > ai है अतः आप्टोगैल्वानिक प्रभाव के कारण विद्युत विभव (एवं धारा) में ऋणात्मक परिवर्तन होता है जो क्षणिक एकवर्णी लेजर के बंद होने पर अपने न्यूनतम मान पर पहुंचने के बाद धीरे धीरे शून्य की ओर बढ़ता है जैसा चित्र 7 में दिखाया गया है।यदि उर्जा स्तर Ei का जीवनकाल Ej की अपेक्षा बहुत अधिक हो (τi >> τj = τ) तो एकवर्णी लेजर प्रकाश पड़ने के तुरंत बाद तो विद्युत विभव (एवं धारा) में ऋणात्मक परिवर्तन होता है जो थोड़े समय के बाद शून्य होकर धनात्मक हो जाता है तथा अपने उच्चतम मान पर पहुंचने के बाद थीरे धीरे घटकर शून्य हो जाता है जैसा चित्र 7 में दिखाया गया है।इस प्रकार ऋणात्मक आप्टोगैल्वानिक प्रभाव तब देखा जाता है जब (t << τj) हो क्योंकि
                ΔV(t) = -βQ(ni-nj)[aj -ai] exp(-t/τj)= [-ve] exp(-t/τj)

और धनात्मक दिखने के लिये (t >> τi)  होना चाहिये क्योंकि तब
                ΔV(t) = -βQ(ni-nj)[0 -ai exp(-t/τi)] = [+ve] exp(-t/τi)

     
चित्र 7 क्षणिक लेजर प्रकाश के बाद ऋणात्मक (a) एवं धनात्मक (b) आप्टोगैल्वानिक प्रभाव का समय के साथ क्रमिक विकास

नियान तथा आर्गन गैस की लेजर आप्टोगैल्वानिक स्पेक्ट्रोस्कोपी  

नियान गैस का आप्टोगैल्वानिक स्पेक्ट्रम रिकार्ड करने के लिये प्रयोग की रूपरेखा चित्र 7 के माध्यम से दिखायी गयी है [13]   इसमें प्रयुक्त नियोडियम लेजर द्वारा पंपित कुछ नैनोसेकण्ड के क्षणिक डाई लेजर के उख्सर्जित एकवर्णी प्रकाश का विस्तार 500 से 540 नैनोमीटर (2000 से 18240 वेभनम्बर)  तक था। क्षणिक उत्पन्न आप्टोगैल्वानिक सिगनल को बाक्सकार मे भेजा जाता है जहां क्षणिक लेजर से उत्सर्जित प्रकाश को आधार बनाकर उसके रिकार्डिन्ग मे विलंब का समय स्थिर किया जाता है। बाक्सकार से उत्पन्न सिगनल द्वारा आप्टोगैल्वान्कि स्पेक्ट्रम रिकार्ड किया जाता है।

चित्र 8 हालो कैथोड वाले बल्ब के गैसिय डिस्चार्ज की लेजर आप्टोगैल्वानिक स्पेक्ट्रोस्कोपी के लिये प्रयुक्त उपकरण

                             
चित्र 9 नियान परमाणु के उत्तेजित मेटास्टेबल उर्जा स्तर से 2 फोटान के अवशोषण द्वारा प्राप्त आप्टोगैल्वानिक स्पेक्ट्रम की न्स् और न्द रिडबर्ग श्रृंखला की स्पेक्ट्रमी रेखाएं वेभनम्बर स्केल में प्रदर्शित

रिडबर्ग श्रृंखला की दोनो प्रकार की स्पेट्रमी रेखाओं के लिये एक ही साझा मेटास्टेबल निम्न उर्जा स्तर होता है जो नियान जैसे जटिल परमाणु के लिये प्रयुक्त j-l स्कीम में 3s[3/2]2 प्रदर्शित किया जाता है।लेजर जनित 2 फोटान अवशोषण मे शामिल सभी उच्च उर्जा स्तर का जीवनकाल निम्न उर्जा स्तर की अपेक्षा अधिक होता है जिस की वजह से चित्र 7a की भांति आप्टोगैल्वानिक प्रभाव ऋणात्मक होता है।
          आर्गन गैस के आप्टोगैल्वानिक स्पेक्ट्रम की रिकार्डिग के लिये नियान गैस की ही भांति डाई लेजर प्रयुक्त किया गया  जिसका वेभनम्बर प्रसार 13520 से 16520 तक था [14]चित्र 10 मे प्रदर्शित आप्टोगैल्वानिक स्पेक्ट्रम से स्पष्ट है कि कुछ रेखायें पतली तथा कुछ मोटी हैं।लेजर प्रकाश पड़ने के 2 माइक्रोसेकण्ड बाद की रिकार्डिग में पतली तथा मोटी दोनो प्रकार की स्पेट्रमी रेखाओं में ऋणात्मक आप्टोगैल्वानिक प्रभाव देखने को मिलता है जबकि 13 माइक्रोसेकण्ड बाद पतली रेखायें ऋणात्मक एवं मोटी धनात्मक आप्टोगैल्वानिक प्रभाव प्रदर्शित करती हैं।जैसा हम देख चुके हैं कि नियान के 2 फोटान आप्टोगैल्वानिक स्पेक्ट्रम मे शामिल उच्च उर्जा स्तर का जीवनकाल अधिक होने के कारण चित्र 7a  के आलोक मे आप्टोगैल्वानिक प्रभाव ऋणात्मक होता है ठीक उसी प्रकार की स्थिति चित्र 10 में आर्गन की पतली स्पेट्रमी रेखाओं के लिये लागू होती है।चित्र 10 की मोटी स्पेट्रमी रेखाओं के लिये 2 माइक्रोसेकण्ड विमम्ब पर तो ऋणात्मक आप्टोगैल्वानिक प्रभाव देखने को मिलता है मगर 13 माइक्रोसेकण्ड बाद वह धनात्मक हो जाता है।अतः यह निष्कर्ष निकलता है कि ये रेखायें एक फोटान का अवशोषण प्रदर्शित करती हैं जिनमे उच्च उर्जा स्तर का जीवनकाल निम्न उर्जा स्तर से कम होने के कारण चित्र 7b की भांति ऋणात्मक एवं धनात्मक दोनो ही प्रकार के आप्टोगैल्वानिक प्रभाव दिखायी पड़ते हैं।आर्गन परमाणु के आप्टोगैल्वानिक स्पेक्ट्रम में एक और दो फोटान के अवशोषण को चित्र 10 द्वारा उर्जा स्तरों के बीच संक्रमण के रूप में प्रदर्शित किया गया है।
           
                                                                 
चित्र 10 डाई लेजर के क्षणिक प्रकाश के बाद अलग अलग समय पर आर्गन परमाणु का आप्टोगैल्वानिक स्पेक्ट्रम बायीं ओर प्रदर्शित है जिसमें उपर तथा बीच के स्पेक्ट्रम में लेजर प्रकाश रेखियध्रुवित तथा नीचे वाले स्पेक्ट्रम के लिये वृत्तीयध्रुवित किया गया।नीचे एवं बीच वाला स्पेक्ट्रम क्षणिक प्रकाश के 2 माइक्रोसेकण्ड बाद तथा उपर वाला 13 माइक्रोसेकण्ड बाद रिकार्ड किया गया।आर्गन परमाणु के आंशिक उर्जा स्तर दायीं ओर प्रदर्शित हैं जहां काले एकल तीर से स्पेक्ट्रम की मोटी एवं दोहरे तीर से पतली रेखाओं का संक्रमण दिखाया गया है  

प्रोफेसर जोशी का व्यक्तित्व

प्रोफेसर जोशी की गिनती अपने समय के भारत के श्रेष्ठतम वैज्ञानिकों मे थी तथा मालवीय जी को अपने विश्वविद्यालय मे अनुसन्धान की परम्परा की शुरूआत करने वाले इस प्रतिभावान प्रोफेसर पर बहुत गर्व था।भारतीय विज्ञान कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन मे विदेश से आने वाले विशिष्ठ वैज्ञानिकों को प्रोफेसर जोशी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय मे आदर के साथ बुलाते थे तथा अपने विद्यार्थियों को उनसे नवीनतम अनुसन्धानो के बारे मे विचार विमर्श के सुनहरे अवसर उपलब्ध कराते थे।साइंस कालेज के वार्षिकोत्सव के अवसर पर भी वे प्रिंसिपल की हैसियत से मुख्य अतिथि के रूप मे किसी महान वेैज्ञानिक को ही निमंत्रित करते थे।महाराष्ट्र एकाडमी ऑफ साइंसेज के संस्थापक सदस्य होने के साथ ही वे कई राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय ज्ञान संस्थाओं से जुड़े थे।वे रायल इन्सिटीच्यूट ऑफ केमेस्ट्री लन्दन,  इन्डियन एकाडमी ऑफ साइन्सेज बंगलोर तथा इन्डियन नेशनल साइंस एकाडमी नई दिल्ली के फेलो थे। उन्हे 1943 मे भारतीय राष्ट्रीय कांगे्रस के केमेस्ट्री प्रभाग का अध्यक्ष 1957 मे पी सी रे मेडल 1959 मे म्युनिख के अन्तर्राष्ट्रीय कांग्रेस ऑन प्योर एण्ड एप्लाएड केमेस्ट्री के फिजिकल केमेस्ट्री प्रभाग का चेयरमैन तथा 1963 मे इन्डियन नेशनल साइंस एकाडमी के उपाध्यक्ष के सम्मान से नवाजा गया था।
प्रोफेसर जोशी के व्यक्तित्व की छाप उनके शिष्यों मे आज भी देखने को मिलती है। गोरखपुर विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति तथा प्रोफेसर जोशी के सबसे प्रिय शिष्यों मे से एक प्रोफेसर बेनी माधव शुक्ल की राय मे उनके देव तुल्य व्यक्तित्व का वर्णन शब्दों मे नही व्यक्त किया जा सकता। प्रोफेसर शुक्ल कहते हैं कि उनके गुरू जिन्हे वे प्रेम मिश्रित सम्मान से ‘दाजू’  कहते थे आज भी उनके प्रेरणास्रोत हैं क्योंकि वैज्ञानिक प्रतिभा के साथ ही उनका व्यक्तित्व आदर्श रूप से संतुलित था।वे परम्परागत भारतीय संगीत मे गहरी रूचि रखने के साथ ही क्रिकेट के शौकीन थे और शाम के समय प्रयोगशाला मे इतना रम जाते थे कि डिनर खाना ही भूल जाते थे।
आज के प्रसिद्ध भारतीय वैज्ञानिकों मे से एक प्रोफेसर सी एन आर राव 1953 मे एम एस सी केमेस्ट्री के विद्यार्थी थे तथा उन्हे प्रोफेसर जोशी के निर्देशन मे रीसर्च करने का अवसर मिला था। उनकी राय मे प्रोफेसर जोशी विज्ञान के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित थे। वे  अनुशासन के सख्त पक्षधर थे और समय से कार्य सम्पन्न करने तथा कराने मे विश्वास रखते थे।प्रोफेसर राव के अनुसार उनकी अपनी वैज्ञानिक सफलता का श्रेय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के रसायन विभाग मे प्राप्त प्रारंभिक अनुसंधान की कला को जाता है।
  प्रोफेसर जोशी के शिष्यों के अलावा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय मे जिन लोगों को भी उन्हे देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ वे उनके चौड़े ललाट पर लटकते हुए चांदी से सफेद सुन्दर बालों और आभा युक्त मुखमंडल को याद कर आज भी रोमांचित हो उठते हैं।

आभार

इस लेख की प्रेरणा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र एवं प्रमुख उद्योगपति श्री दीनानाथ झुनझुनवाला से मिली।विश्वविद्यालय तथा इसके महान अध्यापकों के प्रति उनका आदर भाव देखकर मै जब लेखन सामग्री की खोज शुरू किया तो यह देखकर विस्मय हुआ कि प्रोफेसर जोशी के जीवन से संबंधित बहुत कुछ उपलब्ध नही है।प्रोफेसर बेनी माधव शुक्ल से वार्तालाप के द्वारा जोशी जी के बारे मे काफी प्रेरणादायक एवं रोचक प्रसंगों की जानकारी हुई। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के रसायन के प्रोफेसर एस के सेनगुप्ता ने प्रोफेसर जोशी के अनुसंधान से संबंधित लिखित सामग्री [15,16] उपलब्ध कराने मे बहुत सहयोग किया।

सन्दर्भ  (Reference)


                                   1.    S. S.Joshi, Curr. Sci., 8 (1939) 548
2.    S.S. Joshi & V. Narasimhan, Current Science 9 (1940) 535
3.    W. L. Harries & A. von Engel,  J. Chem. Phys. 20 (1952) 918
4.    S. R. Khastgir & P. S. V. Setty, Proc. Nat. Inst. Sci. (India) 19 (1953) 631
5.    S. Deb, A. K. Saha & M. Ghosh, J. Chem. Phys. 21 (1953) 1486
6.    T. Nakaya, J. Phys. Soc. Japan 11 (1956) 1264
7.    M. Venugopalan & N. Madhavan, Naturwissenschaften 49 (1962) 278
8.    H. J. Arnikar & M. G. Nene, J. Electronics & Control 14 (1963) 389
9.     G.W. Series, Contemp. Phys. 25 (1984) 3
10.  F.M. Penning,  Physica 8 (1928) 137
11.R.B. Green, R.A. Keller, G.G. Luther, P.K. Schenck and J.C. Travis, Appl.Phys. lett 29 (1976) 727
12. D.S.King, P.K. Schenck, K.C. Smith and J.C. Travis, Appl.Opt 16 (1977) 2617
13. S.N. Thakur and K. Narayanan, Optics Commun. 94 (1992) 59
14. R.C. Sharma, T. Kundu and S.N. Thakur, Pramana 50 (1998) 419
15.Proceedings Symposium on ‘Recent Developments in Gas Discharge Phenomenon’ Commemorating 71st Birthday of Professor S.S. Joshi Nagpur University Journal (Science) November 13, 1970
16.Proceedings Symposium on ‘High Resolution Spectroscopic Methods in Chemistry’ A Tribute to Late Professor S.S. Joshi on his Birth Centenary, Banaras Hindu University February 19, 1999

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Monday, July 7, 2014

Professor Meghnad Saha- the Indian Spectrophysicist

             एस्ट्रोस्पेक्ट्रोस्कोपी के जनक प्रोफेसर मेघनाद साहा

                                     सूर्य नारायण ठाकुर

             भौतिकी विभाग़  काशी हिन्दू विश्वविद्यालय.   वाराणसी

बीसवीं सदी के प्रथम तीन दशक भारत की स्वाधीनता की लड़ाई के साथ ही साथ विज्ञान के क्षेत्र में भी देश के महान विभूतियों के अभ्युदय के साक्षी रहे हैं।इसी काल में सर जगदीश चन्द्र बोस   सर प्रफुल्ल चन्द्र रे       श्रीनिवास रामानुजन  सर चन्द्रशेखर वेंकट रामन    सर शान्ति स्वरूप भटनागर  प्रोफेसर सुब्रहृमण्यम चन्द्रशेखर  प्रशान्त चन्द्र महालानोबीस तथा प्रोफेसर सत्येन्द्र नाथ बोस जैसे विद्वानो ने भारत में आधुनिक वैज्ञानिक शोध के द्वारा विश्व पटल पर अपना तथा देश का नाम रोशन किया।प्रोफेसर मेघनाद साहा का नाम भी इसी श्रेणी के श्रेष्टतम वैज्ञानिकों मे शामिल है।                   

              

    प्रोफेसर मेघनाद साहा 1893 -  1956



      हमारे देश में सूर्य को साक्षात देवता के रूप में अनादिकाल से पूजा जाता है।हमारे पूर्वजों को इस बात का पूर्ण ज्ञाान था कि बिना सूर्य की उर्जा के पृथ्वी पर किसी भी प्रकार की वनस्पति या जीवन संभव नही है।सूर्य के प्रकाश के द्वारा बनने वाले मनमोहक इन्द्रधनुष को यद्यपि मनुष्य अनादिकाल से देखता तथा सराहता रहा है मगर सत्रहवीं सदी में अंग्रेज वैज्ञानिक सर आइजक न्यूटन ने प्रयोगों द्वारा यह पहली बार दिखाया कि सूर्य का श्वेत दिखने वाला प्रकाश वास्तव में अनेक रंगों का मिश्रण है।न्यूटन द्वारा सूर्य के प्रकाश को विभिन्न रंगों में विभक्त होकर बनने वाले बिम्ब का नामकरण ‘स्पेक्ट्रम’ के रूप मे किया गया।कालान्तर में तकनिकी विकास के साथ ही सौर स्पेक्ट्रम के अध्ययन की गुणवता में भी बहुत सुधार हुए और उन्नीसवीं सदी में जर्मन वैज्ञानिक फ्रानहोफर ने स्पेक्ट्रम के रंगों के बीच बहुत सी काली रेखाओं का गहन अध्ययन किया जो आज भी फ्रानहोफर रेखाओं के नाम से जानी जाती हैं।चित्र 1 में सौर स्पेक्ट्रम में दिखने वाली कुछ मुख्य फ्रानहोफर रेखाओं को प्रदर्शित किया गया है।





चित्र 1  सौर स्पेक्ट्रम मे काली फ्रानहोफर रेखायें A  और   B  आक्सिजन C
और  F  हाइड्रोजन  D  सोडियम  E  आयरन तथा  H  और  K  कैल्सियम परमाणुओं को दर्शाती हैं


      फ्रानहोफर रेखाओं की पहचान पृथ्वी पर पाये जाने वाले तत्वों के स्पेक्ट्रम की रेखाओं के रूप में होने के बाद बीसवीं सदी के आरम्भ तक यह धारणा बन चुकी थी कि पृथ्वी के वायुमंडल की तर्ज पर सूर्य का भी अपना वायुमंडल है।वास्तव में फ्रानहोफर रेखायें सूर्य के वायुमंडल में स्थित परमाणुओं द्वारा सूर्य के प्रकाश से कुछ विशिष्ठ तरंगदैघ्र्य के अवशोषण के कारण दिखाई देती हैं।प्रोफेसर मेघनाद साहा ने सूर्य के वायुमंडल में विभिन्न ऊॅचाई पर पायी जाने वाली फ्रानहोफर रेखाओं तथा वहां के तापक्रम के बीच एक गणितीय सूत्र स्थापित किया जिसके द्वारा इन रेखाओं की अवशोषण तीव्रता के मापन द्वारा सूर्य के वायुमंडल के विभिन्न स्तर के तापक्रम ज्ञात किये जा सकते हैं। प्रोफेसर साहा का यह सूत्र न केवल सूर्य का बल्कि किसी भी तारे का तापक्रम उसके स्पेक्ट्रम के मापन से ज्ञाात करने में उपयोगी है।तारों को विभिन्न श्रेणियों में विभाजित करने तथा उनकी उत्पत्ति एवं विकास के बारे में जानकारी प्राप्त करने में इस सूत्र ने अहम भूमिका निभाई तथा भौतिक विज्ञान की एस्ट्रोफिजिक्स नामक एक नयीशाखा के विस्तार में बहुत तीव्र प्रगति का माध्यम बना।विज्ञान की इस विधा के द्वारा हम जान पाये हैं कि मनुष्यों की भांति ही तारों का भी एक जीवन चक्र होता है।तारे पैदा होते हैं जवान होते हैं तथा बूढ़े भी होते हैं और उनका जीवन काल कुछ करोड़ वर्ष से लेकर कई खरब वर्ष तक का हो सकता है।बड़े आकार के तारों की मृत्यु भयानक विस्फोट के रूप में होती है और इस विस्फोट के दौरान ब्रह्मांड में छिटकी हुई राख से नये तारों का निर्माण होता है।तारों की जन्म कुन्डली की जानकारी में अति महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने वाले प्रोफेसर मेघनाद साहा के जीवन और उनके सूत्र के बारे में इस लेख के माध्यम से हम प्रकाश डालने का प्रयास करेंगे।

प्रोफेसरसाहा का प्रारंभिक जीवन एवं शिक्षा


जब जयनाथ साहा अपने छोटे भाई को सिमुलिया गांव के मिडिल स्कूल में प्रवेश दिलाने के लिये पहॅुचे तो उनके सामने सबसे बड़ी समस्या निवास तथा भोजन की व्यवस्था को लेकर थी।जयनाथ जूट मिल में 20 रूपये मासिक वेतन के एक अति साधारण कर्मचारी थे और उनके पिता ने भाई की आगे की पढ़ाई में मदद से साफ इनकार कर दिया था।जब बालक मेघनाद की प्रतिभा तथा पढ़ाई के प्रति लगन की जानकारी स्थानीय डाक्टर अनन्त कुमार दास को हुई तो उन्होने अपने घर में रहने तथा खाने की व्यवस्था कर दी।बदले में उनको अपनी पढ़ाई के बाद घर की गाय को खिलाना था।मिडिल स्कूल की परीक्षा  मेघनाद ने पूरे ढाका जिले में सर्वोच्च स्थान प्राप्त करते हुये उत्तीर्ण की तथा उन्हे 4 रूपये प्रति माह की स्कालरशिप मिली।अपने जीवन में सफलता के शिखर पर पहॅुचने के बाद भी पोफेसर साहा डाक्टर दास द्वारा की गयी मदद को नही भूले।

      मेघनाद साहा का जन्म 6 अक्टूबर 1893 को वर्तमान बांग्लादेश की राजधानी ढाका से करीब 40 किलोमीटर दूर सेओराटोली नामक गांव में हुआ था।गृहणी माता भुवनेश्वरी देवी एवं छोटी सी दुकान चलाने वाले पिता जगन्नाथ साहा की आर्थिक स्थिति इतनी अच्छी नही थी कि पांच बच्चों के पालन पोषण के साथ साथ उनको पढ़ाया भी जा सके।गांव की प्राइमरी पाठशाला में बालक मेघनाद का प्रदर्शन इतना उत्कृष्ट रहा कि उनके अध्यापकों ने एक स्वर से उनकी आगे की शिक्षा किसी अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में दिलाने की संस्तुति की थी।इस प्रकार का सबसे नजदीक का मिडिल स्कूल उनके गांव से करीब 10 किलोमीटर दूर सिमुलिया गांव में था।1905 में मेघनाद का दाखिला ढाका के कालेजियट स्कूल में कराया गया जहॉ उनका 11 रूपये का मासिक खर्च उनकी स्कालरशिप तथा बड़े भाई द्वारा दी गयी आर्थिक मदद से चलता था।

      ब्रिटेन शासित भारत में 1905 का वर्ष राजनीतिक उथल पुथल लेकर आया था।तत्कालीन  गवर्नर जनरल लार्ड कर्जन ने बंगाल को पूर्वी तथा पश्चिमी बंगाल नामक दो हिस्सों में विभाजित करने का अविवेकपूर्ण निर्णय लिया था जिसका भारतीय जन मानस में घोर विरोध हो रहा था। जब बंगाल के तत्कालीन गवर्नर सर फुल्लर ढाका के कालेजियट स्कूल के दौरे पर आये तो छात्रों ने उग्र विरोध प्रदर्शन किया जिसके फलस्वरूप साहा समेत बहुत से छा्रत्रों को स्कूल से निष्कासित कर दिया गया।कुछ लोगों के अनुसार साहा विरोध प्रदर्शन में नही शामिल थे मगर उस दिन वे नंगे पांव स्कूल आये थे जिसको स्कूल प्रबन्धन ने गवर्नर की अवमानना के रूप में लिया।गरीबी के कारण साहा अक्सर नंगे पांव स्कूल आया करते थे मगर स्कूल प्रशासन ने उस दिन उनका नंगे पांव आना जानबूझ कर गवर्नर का अपमान करार दिया।स्कूल से निष्कासन के साथ ही उनकी 4 रूपये मासिक छात्रवृत्ति भी जाती रही।सौभाग्य से ढाका के किशोरी लाल जुबली स्कूल नामक प्राइवेट स्कूल ने छात्रवृत्ति के साथ ही निशुल्क शिक्षा के लिये बालक साहा का दाखिला अपने यहां कर लिया।स्कूली शिक्षा के दौरान साहा के मन पसंद विषय गणित एवं इतिहास थे।वे राजपूत एवं मराठा रण बॉकुरों के शौर्य से बहुत प्रभावित थे तथा रवीन्द्रनाथ टैगोर की ‘कथा ओ कहानी’ उनकी मनपसन्द पुस्तक रही।स्कूल में उन्होने बाइबल का भी अध्ययन किया और ढाका बापिस्ट चर्च द्वारा संचालित प्रतियोगी परीक्षा मे 100 रूपये का प्रथम पुरस्कार भी जीता।किशोरीलाल जुबली स्कूल से साहा ने 1909 की एन्ट्रेन्स परीक्षा प्रथम श्रेणी में तथा उस समय के पूर्वी बंगाल में सर्वोच्च स्थान के साथ उत्तीर्ण किया।इसके बाद उन्होने ढाका कालेज में दाखिला लिया तथा कलकत्ता विश्वविद्यालय की 1911 की इंटरमीडिएट सांइस की परीक्षा प्रथम श्रेणी एवं श्रेष्ठता सूची में तीसरे स्थान के साथ उत्तीर्ण किया।उस वर्ष की इंटरमीडिएट परीक्षा की श्रेष्ठता सूची में प्रथम स्थान प्राप्त करने वाले विद्यार्थी का नाम था सत्येन्द्र्र नाथ बोस जो आगे चलकर भौतिकी के एक महान वैज्ञानिक के रूप में प्रसिद्ध हुए।साहा और बोस की उच्च शिक्षा साथ साथ हुई और बोस बाद की भी सभी परीक्षाओं में अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करते हुए सर्वोच्च स्थान प्राप्त करते रहे।इस शैक्षणिक प्रतिद्वन्दता के बावजूद इन दो महान विभूतियों ने एक साथ मिलकर भारत में उत्कृष्ट भौतिक विज्ञान की आधारशिला का निर्माण किया।

           

                  प्रोफेसर सत्येन्द्र नाथ बोस  1894 -  1974


      साहा तथा बोस दोनो ने 1911 में कलकत्ता के प्रेसिडेन्सी कालेज में दाखिला लिया जहॉ उनके भौतिकी के प्रोफेसर जगदीश चन्द्र बोस तथा रसायन शास्त्र के प्रोफेसर प्रफुल्ल चन्द्र रे थे।सांख्यिकी के महान विद्वान प्रशान्त चन्द्र महालानोबीस प्रेसिडेन्सी कालेज में इन लोगों से एक वर्ष सीनियर थे। प्रेसिडेन्सी कालेज में ही साहा का परिचय नेताजी सुभाष चन्द्र बोस से हुआ जो उनसे एक वर्ष जूनियर थे।यह परिचय बाद के वर्षो में भारत के नव निर्माण में उनके सहयोग का माध्यम बना।साहा ने 1913 में गणित आनर्स के साथ बी एस सी की परीक्षा उत्तीर्ण की और श्रेष्ठता सूची में उनका दूसरा स्थान रहा क्योंकि इस बार भी सर्वोच्च स्थान बोस को प्राप्त हुआ।दोनो तेजस्वी छात्रों ने एम एस सी गणित में दाखिला लिया मगर इस बार साहा ने परीक्षा में सर्वोच्च स्थान प्राप्त करने के लिये एक प्लान बना रखा था। कलकत्ता विश्वविद्यालय की 1915 की परीक्षा के ठीक पहले साहा ने चुपके से एम एस सी गणित की जगह एम एस सी अप्लाइड गणित की परीक्षा के लिये फार्म भर कर जमा कर दिया।किसी प्रकार बोस को साहा की इस चालाकी का पता चल गया और ऐन वक्त पर उन्होने भी गणित के बजाय अप्लाइड गणित से एम एस सी का फार्म भर दिया।इस बार की परीक्षा में भी कलकत्ता विश्वविद्यालय की श्रेष्ठता सूची में बोस सर्वोच्च और साहा दूसरे नम्बर पर रहे।कुछ लोगों के मतानुसार बोस को यह पता था कि साहा कोई भी निर्णय बहुत सोच समझकर लेते हैं और उनका अप्लाइड गणित की परीक्षा देना भविष्य में उस विषय की उपयोगिता का द्योतक रहा होगा।

       पढ़ाई पूरी करने के बाद मेघनाद अच्छी तनख्वाह वाली नौकरी करना चाहते थे जिसके द्वारा वे अपने गरीब परिवार की आर्थिक मदद करने में सक्षम होते।इस उदेश्य की पूर्ति के लिये वे फाइनेन्शियल सिविल सर्विस की परीक्षा देकर सरकारी नौकरी में जाना चाहते थे मगर स्कूल से निष्कासन के आरोप में उन्हे सरकार विरोधी मानकर परीक्षा देने की अनुमति नही मिली।इसके बाद उनकी इच्छा भौतिकी एवं अप्लाइड गणित में शोध कार्य करने की थी लेकिन कलकत्ता विश्वविद्यालय में उस समय रीसर्च की कोई सुविधा उपलब्ध नही थी।सर आशुतोष मुखर्जी कलकत्ता विश्वविद्यालय के 1906 से 1914 तथा 1921 से 1923 तक दो बार वाइस चांसलर रहे।पहली बार उनके वाइस चांसलर पद से हटने के मात्र चार दिन पहले 27 मार्च 1914 को विश्वविद्यालय के साइन्स कालेज की नींव पड़ी थी।सर आशुतोष मुखर्जी ने मेघनाद साहा एवं सत्येन्द्र नाथ बोस दोनों को 1916 में गणित के लेक्चरर के पद पर साइन्स कालेज में नियुक्त किया मगर गणित के प्रोफेसर गणेश प्रसाद के साथ समन्वय न बैठ पाने की वजह से दोनों लोग भौतिकी विभाग में चले गए जहां एक वर्ष बाद ही चन्द्रशेखर वेंकट रामन ने भौतिकी के पालित प्रोफेसर के गरिमामय पद को सुशोभित किया। सर आशुतोष मुखर्जी का सपना था कि कलकत्ता विश्वविद्यालय में विज्ञान की उच्च शिक्षा का स्तर यूरोप के अच्छे से अच्छे विश्वविद्यालय के समतुल्य हो।चूकि साहा की भौतिकी की पढ़ाई ग्रेजुएट स्तर तक ही थी इस कारण उन्हे पोस्ट ग्रेजुएट कक्षाओं को पढ़ाने के लिये कड़ी मेहनत करनी पड़ती थी।उन्हे स्पेक्ट्रोस्कोपी द्रवस्थैतिकी तथा उष्मागतिकी के साथ साथ क्वांटम यांत्रिकी पढ़ाना था जिसमें आखिरी विषय के उदगम स्त्रोत अभी केवल जर्मन भाषा के जर्नल ही थे।साहा ने बड़ी लगन से जर्मन भाषा सीखी थी तथा उसमें इन्टरमीडिएट की परीक्षा भी पास की थी जो क्वांटम यांत्रिकी का ज्ञान हासिल करने में बहुत उपयोगी सिद्ध हुई। मेघनाद साहा एवं सत्येन्द्र नाथ बोस ने साथ साथ मिलकर पढ़ाना. आधुनिकतम भौतिकी सीखना तथा रीसर्च करना शुरू किया क्योंकि दोनो लोगों का मत था कि सशक्त अध्यापन के लिये रीसर्च जरूरी था।जून 1918 मे उनका विवाह राधारानी साहा के साथ हुआ जो एक सीधी सादी एवं दयालु महिला थीं तथा बाद के वर्षों मे प्रोफेसर साहा के शोध छात्रों के लिये ममतामयी मॉ के समान रहीं।

      शिक्षण के साथ साथ रीसर्च करना मेघनाद साहा के लिये काफी कठिन था विशेषकर ऐसी परिस्थिति मे जबकि विभाग में न कोई प्रयोगशाला थी न कोई रीसर्च निर्देशक। प्रेसिडेन्सी कालेज की पुस्तकों से सुसज्जित लाइब्रेरी तथा शिबपुर कालेज में भौतिकी के अध्यापक डाक्टर बूहाल् के दुर्लभ पुस्तकों के संग्रह ने साहा को रीसर्च में आगे बढ़ने में अदभुत प्रेरणा प्रदान किया।उन्होंने सत्येन्द्र्र नाथ बोस के साथ मिलकर व्यापक रिलेटीविटी पर आइंस्टाइन और मिंकीवस्की द्वारा जर्मन भाषा में प्रकाशित शोध पत्रों का अंग्रेजी अनुवाद कर उसे एक पुस्तक का रूप दे दिया।इस अनुवाद की प्रशंसा करते हुये एस्ट्रोफिजिक्स के महान विद्वान सुब्रहृमण्यम चन्द्रशेखर ने कहा है कि आइंस्टाइन द्वारा व्यापक रिलेटीविटी सिद्धान्त दिये जाने के तीन वर्ष के भीतर ही 1919 में उसका अंग्रेजी स्वरूप प्रस्तुत करना उच्चतम वैज्ञानिक उपलब्धि का द्योतक है।शुरू में साहा ने भौतिकी की विभिन्न प्रकार की समस्याओं पर शोध पत्र प्रकाशित किये तथा 1918 में उन्हें एक शोध प्रबन्ध के रूप में कलकत्ता विश्वविद्यालय की डाक्टर ऑफ साइन्स की डिग्री के लिये प्रस्तुत किया।उन्हें 1919 में डाक्टर ऑफ साइन्स की डिग्री प्रदान की गयी तथा उसी वर्ष ‘तारकीय स्पेक्ट्रम का हारवर्ड वर्गीकरण’ नामक निबन्ध के आधार पर प्रेमचन्द रायचन्द स्कालरशिप भी मिली जिसके द्वारा उन्हें करीब दो वर्ष तक यूरोप की कई प्रयोगशालाओं में शोध कार्य करने का अवसर प्राप्त हुआ।उनके उत्कृष्ट शोध प्रबन्ध ‘तारकीय स्पेक्ट्रम में रेखाओं की उत्पत्ति’ के लिये उन्हें कलकत्ता विश्वविद्यालय द्वारा 1920 की ग्रिफिथ प्राइज से नवाजा गया।  डाक्टर साहा ने प्लैंक और नर्नस्ट की उष्मागतिकी की किताबों तथा शोध पत्रों एवं नील्स बोर और सोमरफेल्ड के क्वान्टम सिद्धान्त पर शोध पत्रों का गहन अध्ययन किया था। प्रेमचन्द रायचन्द स्कालरशिप पर सितम्बर 1919 में लन्दन जाने से पहले उन्होंने निम्नलिखित चार शोध पत्र फिलासाफिकल मैगजीन नामक शोध पत्रिका मे प्रकाशन के लिये भेज दिया था जो 1920 के मार्च तथा मई के बीच प्रकाशित हुए।इन्ही निम्नलिखित शोध पत्रों में साहा ने ‘उष्मीय आयनन का सिद्धान्त’ प्रतिपादित कियाः

·       सौर वर्ण मंडल का आयनन                        मार्च 1920

·       तारों का हारवर्ड वर्गीकरण                         मई  1920

·       सूर्य मे पाये जाने वाले तत्व                        मई  1920

·       गैसों द्वारा तापीय विकिरण                         मई  1920

      डाक्टर साहा ने लन्दन के इम्पीरियल कालेज के प्रोफेसर अल्फ्रेड फाउलर की प्रयोगशाला में शोध कार्य करने की योजना बनायी थी क्योंकि उनके द्वारा प्रकाशित शोध पत्र ‘आयनित हीलियम का स्पेक्ट्रम’ से वे बहुत प्रभावित हुये थे।जब नवम्बर 1919 में प्र्रोफेसर फाउलर पहली बार मिले तो उन्होने सोचा था कि साहा भी उस समय के अन्य भारतीय युवकों की भांति डी एस सी की डिग्री प्राप्त करने के उदेश्य से उनकी प्रयोगशाला में आये थे। जब डाक्टर साहा ने अपने शोध कार्य करने की योजना के बारे में उन्हे विस्तार से बताया तो प्र्रोफेसर फाउलर ने निरूत्साहित मन से उन्हे अपनी प्रयोगशाला में काम करने की अनुमति तो दी लेकिन उनके शोध कार्य में कोई रूचि नही दिखलायी।संयोगवश कुछ दिनों बाद ही साहा का भारत से भेजा गया पहला शोध पत्र फिलासाफिकल मैगजीन में प्रकाशित हो गया जिसे पढ़ने के बाद प्र्रोफेसर फाउलर उन्हे आदर की दृष्टि से देखने लगे।साहा ने अपने शोध के द्वारा तारों के रेखिय स्पेक्ट्रम की व्याख्या परमाणु के क्वान्टम सिद्धान्त के आधार पर करते हुये यह दिखलाया था कि तारों के वायुमंडल में परमाणुओं का आयनन वहां के तापक्रम एवं दाब दोनो पर   निर्भर होता है।प्रोफेसर फाउलर की सलाह पर साहा ने अपने ‘तारकीय स्पेक्ट्रम का हारवर्ड वर्गीकरण’ शीर्षक वाले निबन्ध को नये प्रायोगिक आंकड़ों की रोशनी में परिमार्जित करते हुये ‘तारकीय स्पेक्ट्रम के भौतिक सिद्धान्त’ नाम से एक शोध पत्र के रूप में चार माह के अथक परिश्रम से लिखा।इस शोध पत्र के रॉयल सोसायटी की प्रोसिडिंग्स में छपते ही प्रोफेसर साहा यूरोप एवं अमेरिका में रातोरात एक खगोल भौतिक विज्ञानी के रूप में प्रतिष्ठित हो गये।बहुत से लोग इस गलतफहमी में रहे हैं कि प्रोफेसर साहा का सारा वैज्ञानिक योगदान प्रोफेसर फाउलर के निर्देशन में हुआ लेकिन जैसा ऊपर के वर्णन से स्पष्ट है कि यह एक संयोग मात्र था कि उनके सभी महत्वपूर्ण शोध पत्र 1920 में उनके लन्दन प्रवास के दौरान प्रकाशित हुए।                                         

                           प्रोफेसर अल्फ्रेड  फाउलर 1868 -  1938



      प्रोफेसर साहा को अपने ‘उष्मीय आयनन के सिद्धान्त’ को प्रयोगों द्वारा प्रमाणित करने के लिये उच्च तापक्रम पर स्पेक्ट्रम प्राप्त करना आवश्यक था जिसकी सुविधा लन्दन में उपलब्ध नही थी।प्रोफेसर फाउलर ने उन्हें बर्लिन में प्रोफेसर नर्नस्ट को पत्र लिखकर यह शोध कार्य उनकी प्रयोगशाला में पूरा करने की अनुमति लेने की सलाह दी जिसके लिये प्रोफेसर नर्नस्ट तुरन्त राजी हो गये।यह उल्लेखनीय है कि 1914 से 1918 के प्रथम विश्व युद्ध की वजह से उस समय ब्रिटीश एवं अमेरिकन वैज्ञानिकों को जर्मनी की प्रयोगशालाओं में शोध कार्य की अनुमति नही थी और प्रोफेसर नर्नस्ट ने साहा को उनकी भारतीय नागरिकता के आधार पर यह विशेष अनुमति प्रदान की थी।वहां के एक वर्ष के प्रवास के दौरान साहा ने न केवल प्रोफेसर नर्नस्ट की उत्कृष्ट प्रयोगशाला का लाभ उठाया बल्कि बर्लिन यूनिवर्सिटी में होने वाले वैज्ञानिक व्याख्यानों तथा प्लैंक एवं आइन्सटाइन जैसे महान वैज्ञानिको के संपर्क द्वारा भौतिक विज्ञान के नवीनतम शोध की भी गहन जानकारी प्राप्त किया।इसी बीच उन्होंने अपने तारकीय स्पेक्ट्रम वाले शोध पत्र की एक प्रति प्रोफेसर सोमरफेल्ड को भेजा जिससे प्रभावित होकर उन्होंने साहा को म्यूनिख यूनिवर्सिटी में खगोल भौतिकी पर व्याख्यान देने के लिये आमंत्रित किया।म्यूनिख में वहां के वैज्ञानिकों से परिचय के अलावा प्रोफेसर सोमरफेल्ड ने साहा की मुलाकात भारत के महान साहित्यकार रवीन्द्र नाथ टैगोर से भी कराई जो उस समय जर्मनी की यात्रा पर थे।इस भेंट के बाद से प्रोफेसर साहा गुरूदेव टैगोर के जीवन पर्यन्त प्रशंसक बने रहे।एक वर्ष तक जर्मनी में रहने के बाद साहा भारत लौटने से पहले स्विटजरलैन्ड होते हुये इंगलैन्ड गये जहां उनकी भेंट कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के महान खगोल वैज्ञानिक प्रोफेसर एडिंग्टन से हुई।प्रोफेसर एडिंग्टन के सहायक मिल्ने ने उन्हें बताया कि वह राल्फ फाउलर के साथ मिलकर साहा द्वारा नेचर पत्रिका में प्रकाशित ‘विकिरण के वर्णात्मक दाब के सिद्धान्त’ पर शोध कर रहा था।यहां बताना समीचीन होगा कि राल्फ फाउलर अपने समय के विख्यात भौतिकविद के अलावा प्रोफेसर रदरफोर्ड की एकलौती पुत्री के पति तथा महान भारतीय खगोलविद सुब्रहमण्यम चन्द्रशेखर के गुरू भी थे। ब्रिटीश मूल के ही एक अमेरिकन खगोलविद विलियम फाउलर ने 1983 के नोबेल पुरस्कार का सम्मान भारतीय खगोलविद चन्द्रशेखर के साथ सम्मिलित रूप से ग्रहण किया।यह एक प्रकार का सुखद संयोग ही कहा जायेगा कि फाउलर नाम के तीन महान खगोलविदों का किसी न किसी तरह का संबंध दो भारतीय मूल के महान खगोल भौतिकी के वैज्ञानिकों के साथ रहा है।

दो वर्ष के विदेश प्रवास के पूरा होते ही सर आशुतोष मुखर्जी ने साहा को कलकत्ता विश्वविद्यालय लौटने की नेक सलाह दी क्योंकि पुनः वाइस चांसलर बनने के बाद उन्होने खैरा के राजा कुमार गुरूप्रसाद सिंह के दान द्वारा भौतिकी में प्रोफेसर का एक नया पद सृजित किया था।नवम्बर 1921 मे साहा ने विदेश से कलकत्ता लौटकर भौतिकी के प्रथम खैरा प्रोफेसर का पद ग्रहण किया। 

गैसों के स्पेक्ट्रम और सौर वायुमंडल

जर्मन वैज्ञानिक जोसेफ फ्रानहोफर के कई बड़े वैज्ञानिक योगदान हैं।स्पेक्ट्रोमीटर में दीर्घ छिद्र का उपयोग करके उन्होने स्पेक्ट्रमी रेखाओं के यथार्थ तरंगदैघ्र्य मापन की विधि निकाली।उस समय के खगोल वैज्ञानिक उनके द्वारा अपने प्रकाशिय उपकरण बनवाने के लिये लाइन लगाये रहते थे। फ्रानहोफर का सबसे प्रसिद्ध योगदान उनके द्वारा 1814 मे सौर स्पेक्ट्रम की काली रेखाओं का का मापन है जो लगभग चार दशक तक वैज्ञानिकों के कौतूहल का विषय बना रहा।बहुत से लोगों का मत था कि फ्रानहोफर की काली रेखाओं और ज्वाला में कोई पदार्थ जलाने पर उससे उत्सर्जित होने वाली रंग बिरंगी स्पेक्ट्रमी रेखाओं में जरूर कुछ न कुछ समानता है मगर इनके बीच वास्तविक संबंध की जानकारी किसी को नही थी।किर्चाफ और बुन्सन ने 1859 में अपने प्रयोगों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला कि कोई गैसिय पदार्थ अत्यधिक ताप पर जिस तरंगदैघ्र्य का प्रकाश उत्सर्जित करता है ठंढ़ी अवस्था में ठीक उसी तरंगदैघ्र्य के प्रकाश को अवशोषित करता है।इस प्रकार वे प्रयोगशाला में यह दिखलाने में सफल रहे कि फ्रानहोफर रेखायें उत्सर्जन स्पेक्ट्रम में चमकीली तथा अवशोषण स्पेक्ट्रम में काली दिखती हैं।चित्र 2 मे हाइड्रोजन गैस के स्पेक्ट्रम प्रदर्शित किये गये हैं तथा फ्रानहोफर रेखायें C और से दिखाई गई हैं।

         

                       F                                                 C

                                                               F                                                          C

चित्र 2  दो अलग स्पेक्ट्रोमीटर पर लिए गए हाइड्रोजन गैस के उत्सर्जन स्पेक्ट्रम [ऊपर] एवं अवशोषण स्पेक्ट्रम [नीचे]


          गैसों के स्पेक्ट्रम को समझने के लिए परमाणु के संरचना की जानकारी आवश्यक है।डेनिश भौतिकविद नील्स बोर ने सर्वप्रथम 1913 में परमाणु की संरचना तथा उसके स्पेक्ट्रम में इस अधार पर संबन्ध स्थापित किया कि परमाणु का सारा धनात्मक आवेश (प्रोटान) एवं न्यूट्रान एक बिन्दुनुमा केन्द्र (न्यूक्लियस) में स्थित होते हैं तथा ऋणात्मक आवेश वाले इलेक्ट्रान इस केन्द्र के चारो ओर निश्चित लम्बाई की त्रिज्या वाले वृत्त में चक्कर लगाते रहते हैं।सबसे छोटा परमाणु हाइड्रोजन का होता है जिसके माध्यम से बोर के सिद्धान्त को समझना आसान होगा क्योंकि इसके न्यूक्लियस में केवल एक प्रोटान तथा बाहरी कक्षा में केवल एक इलेक्ट्रान होता है।बोर के अनुसार इलेक्ट्रान केवल उन्ही कक्षाओं में चक्कर लगा सकता है जिसकी त्रिज्या r निम्नलिखित ढंग से व्यक्त की जा सकेः

                              r = n (h/2πmv)


जहां m इलेक्ट्रान का द्रव्यमान v उसकी वृत्ताकार कक्षा में गति तथा h प्लैंक नियतांक दर्शाते हैं।सबसे छोटी त्रिज्या के लिये n = 1 तथा बड़ी त्रिज्या वाली कक्षाओं के लिये n क्रमशः 2. 3. 4 ……  होता है. n को क्वान्टम नम्बर कहते हैं। हाइड्रोजन परमाणु की आन्तरिक उर्जा En उसके इलेक्ट्रान की त्रिज्या पर निर्भर होती है. जितनी बड़ी कक्षा में इलेक्ट्रान चक्कर करता है उतनी ही अधिक आन्तरिक उर्जा होती है जिसे निम्नलिखित ढंग से व्यक्त किया जाता हैः
                             En  = - (2π2me4)/n2h2

जहां e इलेक्ट्रान का आवेश है तथा ऋणात्मक चिन्ह यह व्यक्त करने के लिये है कि इलेक्ट्रान को परमाणु से अलग करने के लिये इतनी उर्जा बाहर से देनी पड़ेगी।हाइड्रोजन परमाणु की आन्तरिक उर्जा को बढ़ाने के लिये यह जरूरी है कि वह किसी अति सूक्ष्म कण. जैसे इलेक्ट्रान या परमाणु. से अप्रत्यास्थ टक्कर करे।इस तरह की टक्कर में बाह्य कण की गतिज उर्जा का कुछ भाग हाइड्रोजन परमाणु की आन्तरिक उर्जा बढ़ा देता है तथा इलेक्ट्रान एक निश्चित n वाली कक्षा से बड़े n की बड़ी त्रिज्या वाली कक्षा में चला जाता है। परमाणु की आन्तरिक उर्जा बढ़ाने का दूसरा तरीका प्रकाश का अवशोषण है। क्वांटम नम्बर n1 वाली छोटी त्रिज्या की कक्षा से n2 वाली बड़ी त्रिज्या की कक्षा में इलेक्ट्रान के संक्रमण के लिये अवशोषित होने वाले प्रकाश का तरंगदैघ्र्य λ निम्नलिखित ढंग से व्यक्त होता हैः


                           hc/λ   =  En2   -  En1 
जहां निर्वात मे प्रकाश की गति प्रदर्शित करता है।

      जब इलेक्ट्रान की दूरी न्यूक्लियस से इतनी अधिक हो कि परमाणु की आन्तरिक उर्जा शून्य हो जाय तो इस स्थिति को आयनन कहते हैं तथा इसके लिये बाहर से लगने वाली उर्जा को आयनन उर्जा या आयनन विभव कहते हैं।दो या उससे अधिक इलेक्ट्रान वाले परमाणुओं में प्रत्येक इलेक्ट्रान को परमाणु से अलग करने के लिए एक अलग आयनन विभव होता है।सबसे कम आन्तरिक उर्जा वाली स्थिति को परमाणु की मूल अवस्था कहा जाता है तथा अन्य सभी उर्जा स्तरों को उत्तेजित अवस्था कहा जाता है। स्वतंत्र परमाणु में किसी उच्च उत्तेजित उर्जा स्तर से कम उत्तेजित उर्जा स्तर में परमाणु के संक्रमण से एक निश्चित तरंगदैघ्र्य का प्रकाश उत्सर्जित होता है जो अवशोषण की प्रक्रिया की ही भांति दोनो स्तरों के उर्जा के अन्तर पर निर्भर होता है।चित्र 3 में परमाणु द्वारा प्रकाश के अवशोषण तथा उत्सर्जन की प्रक्रिया को दर्शाया गया है।




चित्र 3   परमाणु की मूल अवस्था एवं उत्तेजित अवस्था की उर्जा में अधिक अन्तर के कारण अवशोषित प्रकाश कम तरंगदैघ्र्य का [नीला] दिखाया गया है इसके विपरीत उत्सर्जन की प्रक्रिया में दो उत्तेजित उर्जा स्तरों में कम अन्तर के कारण प्रकाश अधिक तरंगदैघ्र्य का [लाल] दिखाया गया है। तीर द्वारा परमाणु का दो उर्जा स्तरों के बीच संक्रमण प्रदशित किया गया है।


      परमाणु द्वारा प्रकाश के अवशोषण एवं उत्सर्जन की प्रक्रिया को उर्जा स्तर चित्र के माध्यम से ज्यादा सरल ढंग से समझा जा सकता है।जैसा चित्र 4 में दिखाया गया है. परमाणु की मूल अवस्था को सबसे नीचे वाली क्षैतिज रेखा से तथा उत्तेजित अवस्थाओं को उनकी उर्जा के क्रम में क्रमशः ऊपर वाली क्षैतिज रेखाओं से प्रदर्शित किया जाता है।परमाणु के दो उर्जा स्तरों के बीच संक्रमण को उध्र्वाधर तीरों द्वारा प्रदर्शित किया जाता है जहां अवशोषण की प्रक्रिया में तीर का मुंह ऊपर की ओर तथा उत्सर्जन की प्रक्रिया में उसका मुंह नीचे की ओर होता है।यह बताना समीचीन होगा कि किसी भी गैस का अवशोषण स्पेक्ट्रम प्राप्त करने के लिए गैस को स्पेक्ट्रोमीटर  और एक अविरत प्रकाश स्त्रोत के बीच रखना होता है जिससे सभी तरंगदैघ्र्य के दृश्य एवं अदृश्य प्रकाश उत्सर्जित होते हों।सूर्य की सतह इस प्रकार का अविरत प्रकाश स्त्रोत है तथा उसके वायुमंडल में अपेक्षाकृत कम तापक्रम की गैसों द्वारा कुछ विशिष्ट तरंगदैघ्र्य के प्रकाश अवशोषित हो जाते हैं जो फ्रानहोफर की काली रेखाओं के रूप में सौर स्पेक्ट्रम मे दिखाई पड़ती हैं। किसी गैस का उत्सर्जन स्पेक्ट्रम प्राप्त करने के लिये स्पेक्ट्रोमीटर के सामने गैस को अत्यधिक ताप पर रखना होता है अथवा उसमें विद्युत डिस्चार्ज कराना होता है। हम आगे देखेंगे कि सूर्य के वायुमंडल की एक बहुत ही कम मोटाई की पट्टी का तापक्रम इतना अधिक होता है कि उसमें उपस्थित गैसें अपने विशिष्ट तरंगदैघ्र्य के प्रकाश उत्सर्जित करती हैं।सूर्य के प्रकाश में यह विशिष्ट प्रकार का उत्सर्जन 1920 के पहले केवल पूर्ण सूर्य ग्रहण के समय ही देखा जा सकता था।प्रोफेसर साहा इस विशिष्ट प्रकार के सौर स्पेक्ट्रम की व्याख्या करने वाले प्रथम वैज्ञानिक थे।




चित्र 4  हाइड्रोजन परमाणु का उर्जा स्तर चित्र जिसमे आयनन स्तर तथा फ्रानहोफर की C और F रेखायें प्रदर्शित हैं तथा तीर की दिशा परमाणु के प्रारंभिक उर्जा स्तर से अन्तिम के बीच  का संक्रमण प्रदर्शित करती है


      साधारण तौर पर जब हम सूर्य को देखते हैं तो हमे उसके प्रकाशमंडल या फोटोस्फियर से उत्सर्जित प्रकाश ही प्राप्त होता है।प्रकाशमंडल के बाहरी तथा अपेक्षाकृत विरल वायुमंडल को वर्ण मंडल या क्रोमोस्फियर एवं उससे भी बाहरी भाग को कोरोना कहते हैं।प्रकाशमंडल की चमक इतनी तेज होती है कि विशेष परिस्थितियों के अलावा क्रोमोस्फियर या कोरोना द्वारा उत्सर्जित प्रकाश का अवलोकन संभव नही हो पाता। इस प्रकार की एक विशेष परिस्थिति प्राकृतिक रूप से पूर्ण सूर्य ग्रहण के समय उत्पन्न होती है जब प्रकाशमंडल चन्द्रमा के द्वारा ढक जाता है और क्रोमोस्फियर से उत्सर्जित प्रकाश हीरे की अंगूठी के छल्ले की तरह चमकता हुए दिखाई पड़ता है। क्रोमोस्फियर के अध्ययन की दृष्टि से 1868 के पूर्ण सूर्य ग्रहण के समय भारत में जो सौर स्पेक्ट्रम प्राप्त हुया उसमें फ्रानहोफर रेखायें अवशोषण स्पेक्ट्रम के रूप में न होकर उत्सर्जन स्पेक्ट्रम के रूप मे प्राप्त हुईं।इसको फ्लैश स्पेक्ट्रम का नाम दिया गया क्योंकि यह प्रकाश कुछ क्षणों के लिये ही दिखाई देता है। फ्लैश स्पेक्ट्रम का चित्र लेने के लिये स्पेक्ट्रोमीटर की स्लिट को हटा दिया जाता है जिससे अधिक से अधिक प्रकाश प्रिज्म में से होकर गुजर सके। फ्लैश स्पेक्ट्रम की रेखायें धनुषाकार होती हैं क्योंकि वे सूर्य के बाहरी भाग की प्रतिबिम्ब होती हैं जैसा चित्र 5 में दिखाया गया है।








चित्र 5  फ्लैश स्पेक्ट्रम मे धनुषाकार रेखाओं के विभिन्न आकार का कारण उनको उत्सर्जित करने वाले परमाणुओं का सूर्य के वायुमंडल में भिन्न भिन्न ऊचाई तक उपस्थित होना है।उदाहरण स्वरूप छोटे आकार की नीले रंग की रेखा वाला प्रकाश उत्सर्जित करने वाले परमाणु बड़े आकार की लाल रंग की रेखा उत्सर्जित करने वाले परमाणुओं की अपेक्षा कम ऊचाई तक ही पाये जायेंगे


       फ्लैश स्पेक्ट्रम की व्याख्या मे सर नारमन लाकीयर के अनुसंधानो ने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।सर नारमन अल्फ्रेड फाउलर के गुरू थे तथा 1911 तक लन्दन की सौर भौतिकी प्रयोगशाला के निदेशक रहे।उन्होने अपने प्रयोगों द्वारा यह पाया कि एक ही तत्व  (कैल्शियम) को लौ मे प्रज्वलित करने पर उसका उत्सर्जन स्पेक्ट्रम आर्क मे प्रज्वलन से उत्पन्न स्पेक्ट्रम से भिन्न होता है तथा उसी तत्व को स्पार्क मे प्रज्वलित करने पर प्राप्त स्पेक्ट्रम उन दोनो से भी सर्वथा भिन्न होता है।लाकीयर ने इस भिन्नता को समझाने के लिये यह तर्क दिया कि किसी भी तत्व को प्रज्वल्लित करने पर एक उद्दीपक के प्रभाव से स्पेक्ट्रम प्राप्त होता है और उद्दीपन की क्षमता लौ तथा आर्क की अपेक्षा स्पार्क मे ज्यादा होती है। उन्होने किसी तत्व की अधिक उद्दीपन वाली स्पेक्ट्रमी रेखाओं को प्रवर्धित रेखाओं की संज्ञा दी तथा यह सिद्ध किया कि फ्रानहोफर रेखायें H और K कैल्शियम की प्रवर्धित रेखायें हैं।प्रवर्धन की धारणा के अनुसार लाकीयर ने किसी भी परमाणु के साधारण स्पेक्ट्रम को प्रथम तथा बढ़ते प्रवर्धन के साथ द्वितीय तथा तृतीय स्पेक्ट्रम का नाम दिया जो कैल्शियम के लिये क्रमशः Ca I, Ca II तथा Ca III से दर्शाया  जाता है। सर्वप्रथम साहा ने ही साधारण एवं आयनित परमाणु के स्पेक्ट्रम के अन्तर की पहचान की।उन्होने यह स्पष्ट किया कि आयनित परमाणु वह है जिसने एक इलेक्ट्रान खो दिया है तथा लाकीयर द्वारा प्रवर्धित रेखाओं के रूप मे पहचानी गयीं Ca II  रेखायें H और K वास्तव मे  Ca+  आयन के स्पेक्ट्रम की रेखायें हैं।


क्रोमोस्फियर एक पहेली


·       क्रोमोस्फियर के उपरी भाग के स्पेक्ट्रम मे पायी जाने वाली रेखायें लाकीयर की प्रवर्धित रेखायें होती हैं।अगर इनको उत्सर्जित करने वाले परमाणुओं का उद्दीपन उच्च तापक्रम के कारण होता है जैसा लाकीयर ने कहा था  तो क्रोमोस्फियर का तापक्रम सूर्य के फोटोस्फियर से बहुत अधिक होना चाहिये।इस व्याख्या के अनुसार सूर्य के केन्द्र से दूर जाने पर उसके वायुमंडल का तापक्रम क्रमशः बढ़ना चाहिये जो भौतिकी के सिद्धान्तों के विपरीत है।


·      पृथ्वी पर पाये जाने वाले बहुत से परमाणु क्रोमोस्फियर के स्पेक्ट्रम मे नही मिलते हैं।


·      कैल्शियम जैसे अपेक्षाकृत भारी परमाणु क्रोमोस्फियर मे अधिक ऊचाई तक मिलते हैं जबकि सबसे हल्के हाइड्रोजन के परमाणु उस ऊचाई तक नही पहुॅच पाते हैं।


·      सूर्य के फ्रानहोफर स्पेक्ट्रम मे हीलियम गैस की कोई रेखा नही मिलती जबकि उसके फ्लैश स्पेक्ट्रम मे हीलियम की कुछ उत्सर्जन रेखायें दिखती हैं।आयनित हीलियम  (He+) की 4686 अंग्सट्राम की रेखा क्रोमोस्फियर मे केवल 2000 किलोमीटर की ही ऊचाई तक मिलती है जबकि हीलियम के साधारण परमाणु की रेखायें 8000 किलोमीटर की ऊचाई तक मिलती हैं।


      प्रोफेसर साहा ने अपने शोध द्वारा उपरोक्त सभी विसंगत लगने वाले प्रेक्षणों की व्याख्या करने में सफलता प्राप्त की।जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि लाकीयर ने क्रोमोस्फियर की प्रवर्धित रेखाओं की पहचान सम्बन्धित परमाणुओं के स्पार्क स्पेक्ट्रम की रेखाओं के रूप मे किया था लेकिन परमाणुओं के उद्दीपन का कारण तापक्रम को बताया था।साहा ने सर्वप्रथम यह निष्कर्ष निकाला कि परमाणु का उद्दीपन और कुछ नही बल्कि उसकी आयनित अवस्था है तथा प्रवर्धित रेखायें वास्तव मे उसके आयन की स्पेक्ट्रमी रेखायें हैं।इस नई व्याख्या के अनुसार क्रोमोस्फियर का ऊपरी भाग परमाणुओं की आयनित अवस्था का एक वृहद स्त्रोत है तथा आयन बनने की प्रक्रिया में तापक्रम के अलावा गैस का दाब भी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है।साहा के आयनन समीकरण के द्वारा न केवल सूर्य के क्रोमोस्फियर की जटिलता को समझना संभव हुआ बल्कि ब्रह्मांड में विभिन्न प्रकार के तारों की भौतिक स्थिति का आकलन भी उनके स्पेक्ट्रम के आधार पर करने का मार्ग प्रशस्त हो गया।


साहा का आयनन समीकरण


प्रोफेसर साहा ने स्वयं कहा है कि तापीय आयनन की परिकल्पना 1919 में उस समय हुई जब वे भौतिकी की एम एस सी कक्षाओं को उष्मागतिकी एवं स्पेक्ट्रोस्कोपी पढ़ाने के साथ ही साथ खगोल भौतिकी की कुछ मूल समस्याओं पर मनन कर रहे थे। सौर स्पेक्ट्रम की जानकारी के आधार पर उस समय के कुछ मशहूर वैज्ञानिक तारों की संरचना संबंधित माडल की परिकल्पना में जुटे थे। प्रख्यात खगोल भौतिकीविद प्रोफेसर एडिंगटन का मत था कि तारों में आयनित परमाणु तथा विद्युतचुम्बकीय विकिरण (दृश्य एवं अदृश्य प्रकाशएक प्रकार की साम्यावस्था बनाये रखते हैं. लेकिन यह साम्यावस्था क्या होती है इसके बारे में कोई विस्तृत जानकारी नही थी।जर्मनी के युवा वैज्ञानिक एगर्ट ने 1919 मे तारों में आयनन की प्रक्रिया पर शोध शुरू किया था।वे महान रसायन वैज्ञानिक प्रोफेसर नर्नस्ट के शोध छात्र थे जिन्होने उष्मागतिकी का तीसरा नियम प्रतिपादित किया था तथा उसके द्वारा विभिन्न प्रकार की रासायनिक क्रियाओं की व्याख्या कर 1923 का नोबल पुरस्कार प्राप्त किया था।एगर्ट ने परमाणु के आयनन को भी एक रासायनिक क्रिया का रूप देने का प्रयत्न किया जिसमे तापीय उर्जा के प्र्रभाव से परमाणु एक आयन एवं एक इलेक्ट्रान मे परिवर्तित हो जाता है।इस प्र्रक्रिया मे कैल्शियम के परमाणु से कैल्शियम आयन बनना निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत किया जा सकता हैः 

                           Ca    ↔     Ca+  + e - U
                       
जहां  Ca+   कैल्शियम का एक आयन प्रदर्शित करता है जिसमे कैल्शियम
के परमाणु Ca  की अपेक्षा एक इलेक्ट्रान कम है तथा U  एक ग्राम परमाणु

भार को आयन में परिवर्तित  करने के लिये आवश्यक उर्जा की मात्रा है।उपरोक्त प्रक्रिया में तीर का मुंह दोनो  ओर होना यह प्रदर्शित करता है कि 
आयन बनने के लिये  U  उर्जा की आवश्यकता होती है तथा कैल्शियम परमाणु का एक इलेक्ट्रान  उससे अलग हो जाता है मगर कैल्शियम आयन एक स्वतंत्र इलेक्ट्रान  को ग्रहण करके कैल्शियम का परमाणु भी 
बना सकता है जिसमे U उर्जा का उत्सर्जन होता है।अगर उपरोक्त प्रक्रिया  
ताप जनित हो तो Ca   से  Ca+  बनने अथवा  Ca+  से  Ca  बनने में किसी भी उपयुक्त तापक्रम पर एक साम्यावस्था की परिकल्पना की जा सकती है जहॉ दोनो क्रियायें साथ साथ चलने के कारण Ca+  तथा  Ca   का संख्या
घनत्व स्थिर रहेगा।इस प्रकार की साम्यावस्था प्राप्त करने के लिये एगर्ट ने जो समीकरण बनाया वह इस वजह से त्रुटिपूर्ण रह गया कि वे आयनन उर्जा U  का सही अनुमान नही लगा सके। प्रोफेसर साहा ने जर्मन पत्रिका में प्रकाशित एगर्ट के तापीय आयनन के उपरोक्त शोध पत्र को देखते ही उसकी त्रुटी पहचान ली।अपने उष्मागतिकी तथा स्पेक्ट्रोस्कोपी के वृहद ज्ञान के आलोक में उन्होने बिना समय खोये निम्नलिखित समीकरण प्राप्त कर लियाः


             log10 [x2/(1-x2)]P  = U/(4.517T) + 2.5 log10T – 6.5

जहां x आयनित परमाणुओं का प्रभाज है तथा P और T उष्मागतिक साम्यावस्था में क्रमशः गैसिय दाब एवं तापक्रम प्रदर्शित करते हैं।

      प्रोफेसर साहा के सम्मान में यह समीकरण उनके नाम के साथ जुड़ गया क्योंकि उन्होने तुरन्त ही इसका उपयोग क्रोमोस्फियर की अनबूझी पहेलियों को सुलझाने के लिये शुरू कर दिया था।यह उनकी क्रोमोस्फियर एवं तारकीय समस्याओं के बारे मे गहन जानकारी का द्योतक है क्योंकि सूर्य के क्रोमोस्फियर एवं तारों के सतह के बारे में काफी आंकड़े उपलब्ध थे जब कि तारों के भीतरी भाग की कोई जानकारी नही थी।इसके विपरीत यूरोप मे रहते हुये जहां वैज्ञानिक जानकारी अपेक्षाकृत बहुत ज्यादा उपलब्ध थी एगर्ट ने अपने आयनन समीकरण का उपयोग तारों की आन्तरिक संरचना की व्याख्या के लिये किया था।स्पष्ट है कि प्रोफेसर साहा को अपने काम में अपार सफलता मिली।यह भी सुखद संयोग की बात है कि उन्होने यह सभी शोध कार्य अत्यन्त अल्प समय में पूरा कर लिया था क्योंकि बाद में पता चला कि इंगलैंड में प्रोफेसर लिन्डरमैन तथा हालैंड में प्रोफेसर क्रैमर्स भी तारकीय वायुमंडल में आयनन की प्रक्रिया के शोध में लगे हुये थे।यह कहा जा सकता है कि प्रोफेसर साहा ज्यादा भाग्यशाली थे कि अपने से बहुत अधिक सुविधा संपन्न वैज्ञानिकों को पछाड़ते हुए अपने शोध द्वारा अपना तथा भारत का नाम दुनिया भर में रोशन करने में सफल हुये। यूरोप और अमेरिका की वैज्ञानिक हलचल से बहुत दूर कलकत्ता में रहते हुए जहां वे किसी वैज्ञानिक के साथ गहन शोध के विषय में विचार विमर्श भी नही कर सकते थे उन्होने वह उत्कृष्ट काम कर दिखाया जिसकी कोई कल्पना भी नही कर सकता था।इस प्रकार उन्होने एक बार फिर यह बात साबित कर दी कि सही जज्बा होने पर विपरीत परिस्थितियां भी मनुष्य की सफलता में सहायक बन जाती हैं।

      प्रोफेसर साहा के जीनियस होने का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि जब 1919 में उन्होने अपना आयनन समीकरण प्रतिपादित किया तो स्पेक्ट्रमी रेखाओं की व्यख्या करने वाला बोर का क्वान्टम सिद्धान्त केवल 6 वर्ष पुराना था। वैज्ञानिकों को परमाणुओं के आन्तरिक उर्जा स्तर तथा उनके बीच संक्रमण से उत्पन्न होने वाली स्पेक्ट्रमी रेखाओं के बारे में तो जानकारी थी मगर किसी ने भी परमाणुओं के समूह को गरम करने तथा इस जटिल प्रक्रिया से उत्पन्न होने वाले स्पेक्ट्रम के बारे में सोचा भी नही था।आईन्सटाइन ने अपने 1916 के ब्लैकबाडी स्पेक्ट्रम वाले प्रसिद्ध शोधपत्र में   स्पेक्ट्रमी रेखाओं के उत्सर्जन एवं अवशोषण की व्याख्या करते हुए तापक्रम का तो संज्ञान लिया था मगर दाब के बारे में कोई चर्चा नही किया था।साहा ने सर्वप्रथम यह अनुमान लगाया कि सूर्य तथा तारों के वायुमंडल में परमाणुओं का आयनीकरण ताप जनित होना चाहिये और इसमे गैसिय परमाणुओं के दाब की महत्वपूर्ण भूमिका होनी चाहिये। इस निष्कर्ष पर पहुंचने में उनकी उष्मागतिकी की गहरी समझ के साथ ही स्पेक्ट्रोस्कोपी तथा क्वांटम सिद्धांत के ज्ञान ने उनकी सोच को एक नई दिशा दी जिधर अन्य वैज्ञानिक नही देख पाये थे।यद्यपि शुरू में उस समय के भौतिकीविद आयनन समीकरण को अहमियत देने के मूड में नही थे मगर जैसा हम आगे देखेंगे कि साहा ने 4 महीने के अल्पकाल में ही इसके उपयोग से सूर्य तथा तारकीय वायुमंडल की भौतिक स्थिति के बारे में ऐसी जानकारी उपलब्ध कराई कि खगोल भौतिकी के शोध में एक का्रन्ति आ गयी।
     आयनन समीकरण उष्मागतिकी एवं क्वांटम भौतिकी के बीच एक सेतु की तरह था।  साहा ने अपने गहन अध्ययन का उपयोग करते हुए रासायनिक क्रिया की व्याख्या करने वाले नर्नस्ट के समीकरण को परमाणु के आयनन के लिये बहुत ही चतुराई से प्रयुक्त कर लिया था क्योंकि परमाणु के समूह में आयनन तथा प्रकाश के उत्सर्जन एवं अवशोषण की प्रक्रियाओं की सही व्याख्या के लिये प्रयुक्त होने वाला सांख्यिकी अभियांत्रिकी का सिद्धांत अभी अपने शैशव काल में था। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के प्रोफेसर राल्फ फाउलर ने साहा की सफलता को देखते हुये सांख्यिकी अभियांत्रिकी का उपयोग करते हुये उनके समीकरण का निम्नलिखित स्वरूप प्राप्त कियाः
   
      log10 [x2/(1-x2)]P  = U/(4.517T) + 2.5 log10T – 6.5 + Σgi e-Ei/kT

 जहां   gi  परमाणु के उर्जा स्तर  Ei   का सांख्यिकी पदभार है तथा     k
बोल्ट्जमान नियतांक है।



प्रोफेसर फाउलर ने साहा के समीकरण के इस नये अवतार का उपयोग एक ही समूह में स्थित विभिन्न प्रकार के परमाणुओं के एकल एवं बहुल रूप में आयनित होने की व्याख्या के लिये किया।अपने सहयोगी मिल्ने के साथ फाउलर ने साहा द्वारा तारों के हारवर्ड वर्गीकरण को तापक्रम के अनुसार वर्गीकृत करने के काम को और अधिक परिष्कृत रूप दिया जिससे किसी तारे के वायुमंडल के दाब का ज्यादा सटीक मान ज्ञात करना संभव हुआ।


साहा के समीकरण का जादू



                         क्रोमोस्फियर           
                                        
चित्र 6   सूर्य के क्रोमोस्फियर में ऊॅचाई के साथ गैसिय दाब तेजी से घटने के कारण कैल्शियम आयन (लाल वृत्त) का अनुपात कैल्शियम परमाणु (काले वृत्त) की अपेक्षा बढ़ जाता है

साहा के समीकरण में दाहिने तरफ का मान तापक्रम तथा परमाणु की आयनन उर्जा पर निर्भर है जबकि बायें तरफ का मान उस परमाणु के आयन के प्रभाज x  तथा गैसिय दाब पर निर्भर होता है।टेबुल 1 में कुछ परमाणुओं की आयनन उर्जा तुलना के लिये दी गयीं हैंः

टेबुल 1

परमाणु           H    Mg    Ca     Sr      Ba     Na     K      Rb      Cs

आयनन उर्जा   13.6     7.7     6.1      5.7      5.1      5.1      4.3     4.2        3.9 (इलेक्ट्रान वोल्ट)

      अगर हम कैल्शियम परमाणु का उदाहरण लें तथा यह कल्पना करें कि समूचे क्रोमोस्फियर में एक ही तापक्रम है मगर ऊॅचाई के साथ गैसिय दाब कम हो जाये तो साहा के समीकरण में दाहिने तरफ का मान सभी ऊॅचाई के लिये एक ही होगा।इस समीकरण को संतुलित करने के लिये इसके बायें भाग में दाब P   घटने   पर आयन   प्रभाज x बढ़ना चाहिये।इस प्रकार हम देखते हैं कि क्रोमोस्फियर स्पेक्ट्रम की वह पहेली जिसमें कम ऊॅचाई पर साधारण कैल्शियम तथा अधिक ऊॅचाई पर आयनित कैल्शियम होना पाया गया साहा के समीकरण के आलोक में एक हकीकत है जैसा चित्र 6 में दिखाया गया है।वास्तव में समूचे क्रोमोस्फियर का तापक्रम एक नही होता बल्कि वह भी ऊॅचाई के साथ घटता जाता है लेकिन यह घटाव दाब की अपेक्षा बहुत धीमी गति से होता है और साहा के आयनन समीकरण में  एवं का उचित मान रखने पर ऊॅचाई बढ़ने पर x  भी बढ़ जाता है।इस प्रकार हम देखते हैं कि क्रोमोस्फियर में आयनन की प्रक्रिया वहां के तापक्रम के बजाय गैसिय दाब पर बहुत ज्यादा निर्भर करती है जिसके कुछ उदाहरण नीचे भी दिये गये हैं।






चित्र 7  साहा के समीकरण के अनुसार क्रोमोस्फियर में ऊचाई के साथ बदलते हुये कैल्शियम एवं हीलियम के आयनन प्रभाज

        इस पहेली का उत्तर कि क्रोमोस्फियर में 2000 किलोमीटर की ऊॅचाई पर हीलियम आयन की स्पेक्ट्रमी रेखायें मिलती हैं मगर ज्यादा ऊॅचाई पर साधारण हीलियम की रेखायें मिलती हैं चित्र 7 के माध्यम से देने की कोशिश की गयी है। साहा के आयनन समीकरण के आलोक में क्रोमोस्फियर में इस ऊॅचाई पर हीलियम का आयनन सर्वाधिक होता है तथा अधिक ऊॅचाई पर जाने में साधारण हीलियम की अपेक्षा उसके आयन की मात्रा बहुत कम हो जाती है।इसके विपरीत कैल्शियम परमाणु का आयनन ऊॅचाई के साथ लगातार बढ़ता जाता है जिसकी वजह से क्रोमोस्फियर में कम ऊॅचाई पर साधारण कैल्शियम एवं अधिक ऊॅचाई पर उसके आयन की स्पेक्ट्रमी रेखायें मिलती हैं। 

  
चित्र 8       वरणात्मक अवशोषण से उत्पन्न अधिक विकिरण दाब के कारण कैल्शियम के परमाणु भारी होते हुए भी क्रोमोस्फियर में हाइड्रोजन की अपेक्षा अधिक ऊॅचाई तक पहुॅच जाते हैं

      सूर्य की सतह फोटोस्फियर का तापक्रम करीब 7000 सेण्टीग्रेड होने के कारण उससे उत्सर्जित अविच्छिन्न प्रकाश की तीव्रता का प्रकाश के तरंगदैघ्र्य के साथ परिवर्तन चित्र 8 में ऊपर बायीं ओर प्रदर्शित किया गया है।पीले रंग के प्रकाश की तीव्रता सर्वाधिक होती है तथा उससे नीले रंग अथवा लाल रंग के तरफ जाने पर यह तीव्रता घटती जाती है।किसी तरंगदैघ्र्य λ पर प्रकाश की तीव्रता उसके आपेक्षिक फोटान की संख्या द्वारा भी प्रदर्शित की जाती है तथा चित्र 8 में लाल रेखा द्वारा  प्रदर्शित तरंगदैघ्र्य के प्रकाश में फोटान की संख्या नीली रेखा की अपेक्षा बहुत अधिक है।फोटान की उर्जा तथा संवेग क्रमशः  (hc/λ) तथा (h/λ)  से प्रदर्शित किये जाते है। साहा ने बड़े सहज ढंग से यह सोच प्रस्तुत किया कि अवशोषण की प्रक्रिया में फोटान का संवेग परमाणु को स्थानांतरित हो जाता है और वह एक झटके के साथ फोटोस्फियर से क्रोमोस्फियर की ओर गतिमान हो जाता है। परमाणु की यह गति उसके द्वारा अवशोषित फोटान के तरंगदैघ्र्य तथा उनकी आपेक्षिक संख्या पर निर्भर होती है । चित्र 8 में हाइड्रोजन के परमाणु द्वारा अवशोषित प्रकाश कम तरंगदैघ्र्य(नीलाका है जिसमें फोटान की आपेक्षिक संख्या कैल्शियम के परमाणु द्वारा अवशोषित होने वाले अधिक तरंगदैघ्र्य  (लाल)  के प्रकाश की फोटान की आपेक्षिक संख्या से कम होती है।यद्यपि प्रत्येक फोटान के अवशोषण से हाइड्रोजन परमाणु को स्थान्तरित होने वाला संवेग कैल्शियम की अपेक्षा अधिक होता है मगर प्रति सेकेण्ड कैल्शियम परमाणु अधिक फोटान अवशोषित करता है जिसके कारण उसमें उत्पन्न त्वरण सूर्य के गुरूत्वाकर्षण के विपरीत कैल्शियम परमाणुओं को क्रोमोस्फियर में हाइड्रोजन की अपेक्षा अधिक ऊॅचाई तक ले जाने में सक्षम है।इस प्रकार हल्का होने के बावजूद हाइड्रोजन का क्रोमोस्फियर मे्ं कैल्शियम की अपेक्षा कम ऊॅचाई तक ही पाये जाने की व्याख्या परमाणु के वरणात्मक अवशोषण द्वारा संभव हो गयी।

      टेबुल 1 से यह स्पष्ट है कि  Rb   तथा Cs   की आयनन उर्जा अन्यपरमाणुओं की अपेक्षा कम है तथा साहा के समीकरण के द्वारा यह दिखाया जा सकता है कि क्रोमोस्फियर की निचली सतह में भी वे पूर्ण रूप से आयनित अवस्था में होंगे जिसके कारण उनकी फ्रानहोफर रेखायें नही देखी जा सकतीं जब कि  Na   की फ्रानहोफर रेखायें काफी तीव्र दिखती हैं।प्रोफेसर साहा ने अपने समीकरण के आधार पर गणना द्वारा यह निष्कर्ष निकाला कि Rb   तथा Cs की फ्रानहोफर रेखायें सूर्य के धब्बों में देखी जा सकती हैं क्योंकि वहां का तापक्रम फोटोस्फियर से कम होता है जिसके कारण ये परमाणु शत प्रतिशत आयनित नही होंगे।उनके द्वारा प्रस्तावित प्रयोगों से Rb   तथा Cs सूर्य पर उपस्थित पाये गये और यह भ्रम दूर हो गया कि पृथ्वी पर पाये जाने वाले बहुत से तत्व सूर्य में नही हैं।



साहा का समीकरण और तारों की जन्मकुंडली



साहा ने लन्दन में अपने 1920 के प्रवास के दौरान रायल सोसायटी की पत्रिका में तारों के तापक्रम के संबंध में एक महत्वपूर्ण शोधपत्र प्रकाशित किया था। उन्होने यह दिखलाने की कोशिश किया कि अमेरिका के हारवर्ड कालेज वेधशाला द्वारा उस समय O B A F G K M नाम से सात समूहों में विभाजित तारों के स्पेक्ट्रम में क्रमिक परिवर्तन का मुख्य कारण उनके तापक्रम का अन्तर था।तारों के जीवन चक्र को समझने में अमेरिका में प्रिन्सटन यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर रसेल का बहुत बड़ा योगदान है।उन्हे प्रयोगों से प्राप्त आंकड़ों को गणितीय स्वरूप देने में महारत हासिल थी और उन्होने तारों की चमक तथा उनके हारवर्ड वर्गीकरण के आधार पर H-R डायाग्राम नामक प्रसिद्ध ग्राफ का निर्माण किया था।प्रोफेसर रसेल ने साहा के समीकरण के महत्व पर टिप्पणी करते हुए कहा है “आयनन का सिद्धान्त खगोल भौतिकी के लिये बहुत महत्वपूर्ण है और डाक्टर साहा ने तारों के स्पेक्ट्रम श्रेणी की भौतिकीय व्याख्या का बहुत ही अनूठा काम किया है।” जैसा ऊपर बताया जा चुका है मिल्ने एवं फाउलर ने साहा के संशोधित समीकरण के आधार पर तारों के तापक्रम को ज्ञात करने की विधि को और अधिक परिष्कृत रूप प्रदान किया।






चित्र 9   एक तारे के जीवन काल के आरम्भ में उसका आकार बहुत बड़ा मगर तापक्रम कम होता है। समय बीतने के साथ तापक्रम बढ़ता है मगर आकार छोटा होता जाता है।तापक्रम में उतरोत्तर वृद्धि के साथ तारे की चमक तथा उसका  रंग भी बदलता जाता है।अधिकतम तापक्रम पर पहुॅचने के बाद तारा ठंढा होना शुरू हो जाता है मगर उसके आकार का घटना जारी रहता है।इस प्रकार के तारे के जीवन का अन्त एक सफेद बौना तारे के रूप में होता है।


      हम पहले भी यह कह चुके हैं कि तारों का जीवन काल कुछ करोड़ से लेकर कई खरब वर्ष का हो सकता है।अपनी उत्पत्ति के समय जिन तारों का आकार बड़ा होता है उनका जीवन काल अपेक्षाकृत छोटा होता है।अपने जीवन के प्रत्येक क्षण तारे का आकार उसके गुरूत्वाकर्षण तथा विकिरण दाब की साम्यावस्था पर निर्भर होता है।विकिरण दाब प्रबल होने पर तारे का आकार बड़ा हो जाता है और गुरूत्वाकर्षण बढ़ जाने पर वह सिकुड़ कर छोटा हो जाता है।तारे की साम्यावस्था में यह बदलाव कभी कभी भीषण विस्फोट के साथ होता है जिसकी वजह तारे के केन्द्र में होने वाली न्यूक्लियर क्रिया में परिवर्तन होना है।किसी तारे के द्रव्यमान और विस्फोट के बाद उसके स्वरूप की गणना में भारतीय खगोल भौतिकविद प्रोफेसर चन्द्रशेखर का महान योगदान है जिन्होने सर्वप्रथम सफेद बौना तारा बनने की व्याख्या की थी।
      अगर हम पृथ्वी पर मानव जीवन के विकास के इतिहास को देखें तो कुल समय केवल कुछ हजार वर्षों का आता है।अब एक सहज प्रश्न उठता है कि हम एक तारे के कई अरब वर्ष के जीवन की जानकारी प्राप्त करने मे कैसे सफल हुये।इस प्रश्न का उत्तर देते हुए प्रोफेसर साहा ने महान खगोलविद सर जॉन हर्शेल को उद्धरित किया हैः  “अगर किसी ऐसे व्यक्ति को जिसने कभी पेड़ न देखा हो कुछ घंटे जंगल में विचरण करने के लिए छोड़ दिया जाय तो उतने कम समय में उसे पेड़ में नई पत्तियां निकलती नही दिखेंगी मगर उसे बड़े पेड़ों के साथ ही विभिन्न आकार के छोटे पेड़ तथा जमीन पर गिरे हुए तथा सड़ते हुये विशालकाय पेड़ जरूर देखने को मिलेंगे।अपने इस अनुभव के आधार पर वह व्यक्ति पेड़ के जीवन चक्र को समझने में सफल होगा।” ठीक इसी प्रकार से हम ब्रहृमाण्ड में उपस्थित विभिन्न अवस्था के तारों की जानकारी के आधार पर उनकी जन्मकुण्डली बना सकने में सफल हुये हैं।

साहा और नद भौतिकी










चित्र 10   पृथ्वी के अपनी धुरी पर घूर्णन के कारण उत्पन्न कोरियालिस बल के कारण उत्तरी गोलाद्र्ध में उत्तर से दक्षिण अथवा दक्षिण से उत्तर बहने वाली नदियों में बहाव की दिशा दाहिनी ओर झुक जाती है जिससे दाहिने किनारे की मिट्टी के कटने की संभावना बढ़ जाती है

  
       नदियों के कटाव का भौतिकी से एक अनूठा संबन्ध है।जब किसी वस्तु में एक ही साथ घूर्णन एवं रेखिय गति होती है तो भौतिकी के नियमानुसार उस वस्तु पर एक आभासी बल कार्य करने लगता है जिसकी दिशा दोनो गतियों को प्रदर्शित करने वाले सदिशों के लम्बवत होती है।इसको कोरियालिस बल कहते हैं तथा नदी के पानी में इसका प्रभाव उसके एक किनारे का दूसरे की अपेक्षा अधिक कटने में प्रगट होता है जैसा चित्र 10 में दिखाया गया है।कटान के कारण नदी की दिशा भी परिवर्तित होती रहती है जिससे जान माल का खतरा बना रहता है। प्रोफेसर साहा का बचपन ऐसे गांव में बीता था जहॉ नदियों में बाढ़ से प्रत्येक वर्ष भारी तबाही होती थी।उत्तरी बंगाल में 1922 में भीषण बाढ़ आयी और प्रोफेसर प्रफुल्ल चन्द्र रे ने अपने विद्यार्थियों के साथ राहत कार्य में इतनी सक्रियता दिखलाई कि महात्मा गॉधी उन्हे बाढ़ के डाक्टर के नाम से पुकारने लगे।उनके उत्साही विद्यार्थियों की इस टीम में मेघनाद साहा के साथ प्रशान्त चन्द्र महालानोबीस तथा सुभाष चन्द्र बोस भी प्रमुख रूप से शामिल थे।बाढ़ पीड़ित लोगों को भोजन तथा वस्त्र की सहायता के लिये लोगों को प्रेरित करने की जिम्मेदारी साहा को दी गई थी जिसको बखूबी निभाने के साथ ही उन्होने माडर्न रीभ्यू नामक पत्रिका में एक विद्वतापूर्ण लेख भी लिख डाला।बाढ़ पीड़ित लोगों की बातों से उन्हे पता चला था कि भीषण बाढ़ तो पहले भी आयी थी मगर बाढ़ का पानी जितनी देर तक 1922 में रूका रहा वैसा इसके पहले नही हुआ था।उन्होने बाढ़ का कारण रेलवे लाइन के लिए ऊॅची की गयी जमीन को बताया। उन्होने 1871 के सरकारी गजेटियर का अध्ययन किया जिसमें उस वर्ष की बाढ़ का पानी बहुत जल्दी ही निकल गया था क्योंकि उस समय तक वह रेलवे लाइन नही बनी थी।रेलवे लाइन बिछाने के समय उस समय के अंगे्रज इन्जीनीयरों को बंगाल की बरसात से नदियों में आने वाले उफान का गहरा ज्ञान न होने के कारण उन लोगों ने उचित संख्या में पुलिया का निर्माण नही किया जिनसे होकर प्राकृतिक ढाल से बहने वाला पानी जल्द निकल सकता था।साहा ने इस विषय पर 1903 में तत्कालीन भारत सरकार के प्रमुख इन्जीनीयर सर फ्रान्सिस स्प्रिंग की ‘बाढ़ प्रशिक्षण एवं नियंत्रण’ शीर्षक रिपोर्ट का भी अध्ययन किया जिसमें एक बाढ़ प्राधिकरण बनाने की अनुशंसा की गयी थी तथा प्रयोगशाला में नदी के भौतिकी के बारे में शोध का सुझाव दिया गया था।
      प्रोफेसर साहा ने नदियों के नियंत्रण के लिये प्रकृति पर न निर्भर होकर विज्ञान का सहारा लेना ज्यादा उचित समझा।इस संबंध में उनके सामने इतिहास के दो सबक थे। रोम के पास से होकर बहने वाली टाइबर नदी में एक प्राकृतिक मोड़ था जिसकी वजह से बाढ़ का पानी शहर में घुस जाता था। इसका समाधान एक नहर बनाकर नदी को सीधी करने से हो सकता था मगर रोम वासी चुपचाप बैठे रहे जिसके फलस्वरूप बाढ़ के कारण फैले मलेरिया से रोम तबाह हो गया। इसके विपरीत करीब 2 हजार वर्ष बाद जर्मनी के नूरेनबर्ग शहर में राइन नदी के कारण उत्पन्न खतरे का निवारण प्रयोगशाला में किये गये प्रयोगों के आधार पर नहर काट कर किया गया।नदियों के प्रवाह की जानकारी तथा उसके उचित नियंत्रण के लिये साहा ने निम्नांकित दो प्रकार के अध्ययन पर बल दियाः

·       बरसात के जल का नदियों के तरफ बहाव तथा बाढ़ के समय बर्षा होने की गति के बारे में आंकड़े एकत्र करना
·     नदी के क्षेत्र की मिट्टी की जानकारी तथा नियंत्रित प्रयोगों के माध्यम से प्रयोगशाला में ऐसे माडल तैयार करना जिसके द्वारा नदी के बहाव को समझा जा सके तथा उसमें परिवर्तन के असर को देखा जा सके

      साहा ने यूरोप रूस तथा अमेरिका की नद भौतिक प्रयोगशालाओं में होने वाले शोध कार्यों का गहन अध्ययन किया तथा भारत में भी उसी तरह की प्रयोगशालाओं के निर्माण की वकालत की।उनका मानना था कि इंगलैण्ड में इस प्रकार की प्रयोगशालाओं का न होने की वजह वहां की छोटी नदियां थीं जिनसे जानमाल का कोई खास खतरा नही था।भारत एक विशाल देश है और यहां के भिन्न भिन्न क्षेत्रों की मिट्टी में अन्तर होने के कारण उनकी भौतिकी भी अलग प्रकार की है जिसको समझने के लिए भौतिकी एवं गणित का विशिष्ट ज्ञान आवश्यक है।उनके मतानुसार भारत में नद भौतिकी प्रयोगशालाओं की एक श्रृंखला की जरूरत थी जो विश्वविद्यालयों से संबद्ध हों और जिनका निर्देशन गणित की अच्छी जानकारी रखने वाले प्रख्यात भौतिकीविद द्वारा हो।छोटा नागपुर की पहाड़ियों से निकलने वाली दामोदर तथा उसकी सहायक नदियों की 1943 की बाढ़ पर साहा ने काफी मनन किया तथा साइन्स एण्ड कल्चर नामक पत्रिका में कई लेख भी लिखे जिससे प्रभावित होकर तत्कालीन अंग्रेज सरकार ने 1945 में एक तकनीकी सलाहकार समिती का गठन किया तथा 1947 में भारत के स्वतंत्र होने के बाद दामोदर घाटी योजना भारत के नव निर्माण के लिये सरकार द्वारा स्वकृत नदी परियोजना की एक प्रमुख कड़ी रही।


प्रोफेसर साहा का बहुयामी व्यक्तित्व


कलकत्ता विश्वविद्यालय में भौतिकी के खैरा प्रोफेसर के रूप में साहा का कार्यकाल केवल दो वर्ष का रहा। कलकत्ता से अगाध प्रेम होने के बावजूद विश्वविद्यालय में प्रयोगशाला की समुचित सुविधा न होने की वजह से उन्होने अन्यत्र जाने का फैसला किया।एक विश्वविख्यात वैज्ञानिक के रूप में पहचान के कारण भारत के कई अग्रगण्य विश्वविद्याल उन्हे प्रोफेसर का सम्मानित पद देने के इच्छुक थे मगर उन्होने इलाहाबाद विश्वविद्यालय को काशी हिन्दू विश्वविद्यालय और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के ऊपर वरीयता देते हुए 1923 में वहां जाना पसन्द किया।उनके इस निर्णय के पीछे इलाहाबाद विश्वविद्यालय का बाकी दोनो से पुराना होने के साथ वहां की कार्यकारिणी में कुछ मित्रों का होना भी था जिससे उन्हे अपनी शोध प्रयोगशाला बनाने में मदद की उमीद थी।प्रोफेसर साहा का यह सपना इलाहाबाद पहुॅचते ही चकनाचूर हो गया और उन्हे बी एस सी एवं एम एस सी के प्रयोगशालाओं की दयनीय दशा सुधारने में ही भारी मुसीबतों का सामना करना पड़ा।जब लाइब्रेरी के लिये उन्होने भौतिकी की नवीन किताबों का आर्डर भेजा तो प्रशासन के एक अधिकारी जो भूतपूर्व जज थे उसे रोक दिये।उन्होने साहा से पूछा कि क्या वे लाइब्रेरी की सभी पुस्तकों को पढ़ चुके हैं और जब प्रोफेसर साहा ने कहा कि लाइब्रेरी की सभी किताबें पढ़ना किसी एक व्यक्ति के वश की बात नही है तो उन्होने गर्वभाव से कहा कि फिर नई किताबें नही खरीदी जायेंगीं।दुर्भाग्यवश भारतीय विश्वविद्यालयों के प्रशासनिक वर्ग की मनोदशा आज भी कुछ इसी प्रकार की है।
      प्रोफेसर साहा को 1926 में लन्दन की रॉयल सोसायटी का फेलो चुना जाना इलाहाबाद विश्वविद्यालय के लिये बहुत सम्मान की बात थी और उत्तर प्रदेश के तत्कालीन गवर्नर सर विलियम मॉरिस ने उन्हे बधाई के साथ साथ शोध के लिये 5000 रूपये वार्षिक अनुदान की भी व्यवस्था कर दी।  मॉरिस प्रसिद्ध भौतिकीविद प्रोफेसर रदरफोर्ड के सहपाठी रह चुके थे और साहा के शोधकार्य के महत्व को भलीभांति समझते थे।शोध प्रयोगशाला का उनका सपना 1931 में जाकर फलीभूत हुआ और उस समय तक उनके इर्द गिर्द प्रतिभाशाली छात्रों की एक मंडली भी जुट गयी थी।शोधकार्य के साथ ही उन्होने इसी दौरान अपने शोध छात्र बी एन श्रीवास्तव के साथ मिलकर ताप एवं उष्मागतिकी की प्रसिद्ध किताब लिखने का काम पूरा किया।इलाहाबाद में प्रोफेसर साहा ने निम्नलिखित शोध कियेः
·    लोहा तथा उसी समूह के अन्य परमाणुओं के क्लिष्ट स्पेक्ट्रम की व्याख्या
·     अधिक तापक्रम उत्पन्न करने वाली भठी के उपयोग से परमाणुओं के तापीय आयनन का अध्ययन
·   पृथ्वी के आयन मंडल का अध्ययन तथा ऊपरी वायुमंडल में विद्युतचुम्बकीय लहरों का संचालन


      प्रोफेसर साहा लन्दन की रॉयल सोसायटी तथा पेरिस की फ्रेन्च एकादमी की तर्ज पर भारत में भी विज्ञान की पेशेवर संस्था बनाने के भारी पक्षधर थे। इलाहाबाद में भारतीय विज्ञान कांगे्रस के 1930 के वार्षिक अधिवेशन के अवसर पर तत्कालीन गवर्नर सर हेली ने वैज्ञानिक शोध के विकास तथा आम जनता में उसके महत्व के प्रचार के लिये कार्य करने वाली संस्था को सरकारी अनुदान देने की संभावना जताई।इससे उत्साहित होकर प्रोफेसर साहा ने 1932 में यू पी विज्ञान एकादमी की स्थापना की जिसका उद्घाटन करते हुए गवर्नर महोदय ने 4000 रूपये वार्षिक सरकारी अनुदान की भी घोषणा की।आगे चलकर 1934 में इस संस्था का नाम राष्ट्रीय विज्ञान एकादमी कर दिया गया और इसके तत्वाधान में 1938 में विद्युत वितरण पर बुलाई गयी गोष्ठी का उदघाटन उत्तर प्रदेश सरकार के प्रमुख की हैसियत से पंडित जवाहर लाल नेहरू ने किया था।नाम के बावजूद इलाहाबाद की विज्ञान एकाडमी राष्ट्रीय स्तर की संस्था नही थी अतः साहा ने 1935 में राष्ट्रीय विज्ञान इंस्टिच्यूट की स्थापना किया जिसका  हेडक्वार्टर कलकत्ता था।आगे चलकर उन्ही के आग्रह पर हेडक्वार्टर नई दिल्ली बनाया गया तथा संस्था का नाम बदलकर भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान एकाडमी कर दिया गया।
      प्रोफेसर रामन के 1934 में कलकत्ता से बंगलूर चले जाने के बाद विश्वविद्यालय में भौतिकी के पालित प्रोफेसर के लिये किसी उपयुक्त व्यक्ति की तालाश थी और इस पद को ग्रहण करने के लिये जब साहा से निवेदन किया गया तो उन्होने सहर्ष स्वीकार कर लिया तथा 1952 तक इस पद पर बने रहने के साथ ही राष्ट्रीय निर्माण की महत्वपूर्ण योजनाओं से भी जुड़े रहे।अपनी 1937 की विदेश यात्रा के दौरान प्रोफेसर साहा न्यूक्लियर फिजिक्स के शोध से बहुत प्रभावित हुए थे और 1938 में उन्होने अपने विद्यार्थी बी डी नागचौधरी को साइक्लोट्रान के आविष्कारक तथा अमेरिका की बर्कले यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर लारेंस के साथ रीसर्च करने के लिए भेजा।उन्होने कलकत्ता में साइक्लोट्रान के द्वारा शोध के लिए नेहरूजी की मदद से उद्योगपति टाटा से 60000 रूपये का अनुदान प्राप्त किया था तथा 1941 में नागचौधरी के वापस आने के तुरन्त बाद ही कुछ मशीनें भी अमेरिका से प्राप्त हो गयीं थीं।दुर्भाग्यवश मशीनों की दूसरी खेप द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ जाने से जापानी गोलाबारी के कारण कलकत्ता नही पहुॅच पायी तथा प्रोफेसर साहा का यह सपना उनके जीवनकाल में नही पूरा हो सका।वे न्यूक्लियर फिजिक्स में प्रशिक्षण के लिए विश्वविद्यालयों में स्वतंत्र संस्थान बनाने के पक्षधर थे तथा उन्होने 1948 में सर आशुतोष मुखर्जी के सुपुत्र डाक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी से कलकत्ता में न्यूक्लियर भौतिकी संस्थान का शिलान्यास करवाया।इस संस्थान का शुभारंभ 1951 मैडम जोलियट क्यूरी द्वारा किया गया जिनके पति ने रेडियो सक्रियता में शोध के लिये नोबेल पुरस्कार पाने के साथ ही फ्रॉस में न्यूक्लियर उर्जा के विकास में महत्वपूर्ण कार्य किया था।इस संस्थान में न्यूक्लियर भौतिकी की नवीनतम जानकारी देने की व्यवस्था की गयी और यह ‘साहा न्यूक्लियर भौतिकी संस्थान’ के नाम से आज देश के अग्रणी शोध संस्थानों में शुमार है।साहा और होमी भाभा में भारत में न्यूक्लियर उर्जा के विकास के माडल को लेकर भारी मतभेद थे। जहां साहा की सोच में इस दिशा में कार्य शुरू करने से पहले इसके लिये प्रशिक्षित मानव संसाधन तथा कारखाने जुटाना आवश्यक था वही भाभा के अनुसार ये तीनों काम एक साथ करने में ही तेज गति से सफलता प्राप्त की जा सकती थी।दो दिग्गजों की इस वैचारिक जंग में निर्णायक भूमिका निभाते हुए देश के प्रथम प्रधान मंत्री नेहरू ने भाभा की राय को वरीयता दी जो आगे चलकर भारत के लिये लाभकारी रहा।
      प्रोफेसर साहा 1930 के दशक से ही कलकत्ता स्थित इंडियन एशोसिएसन फॉर कल्टिवेशन ऑफ साइंस के कार्य एवं विकास में गहरी रूचि रखते थे।प्रोफेसर रामन इसी संस्था में काम करते हुए 1931 का नोबेल पुरस्कार प्राप्त किये थे तथा इसके अवैतनिक अध्यक्ष थे।कलकत्ता के संकीर्ण 210 बो बाजार स्ट्रीट से हटाकर साहा इसके विकास के लिए ज्यादा खुली जगह में ले जाने के पक्षधर थे मगर प्रोफेसर रामन उनके विचारों से सहमत नही थे।जब साहा 1946 में इसके अध्यक्ष बने तो बंगाल सरकार की मदद से एशोसिएसन में नवजीवन का संचार करते हुए कई दिशाओं में शोध की व्यवस्था की गयी तथा जादवपुर की करीब 10 एकड़ जमीन पर नई इमारतें बनाकर बो बाजार से इसे हटा दिया गया।एशोसिएसन के नियमों का पालन करते हुए साहा ने 1950 में इसके अध्यक्ष पद से अपने को हटा लिया था।इस बीच शांति स्वरूप भटनागर ने भारत में राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं के निर्माण की महत्वाकांक्षी योजना शुरू की थी और उन्ही की तर्ज पर इंडियन एशोसिएसन फॉर कल्टिवेशन ऑफ साइंस के लिए भी अवैतनिक अध्यक्ष की जगह पूर्णकालिक निदेशक पद का सृजन किया गया।प्रोफेसर भटनागर ने जोर देकर साहा को 1953 में प्रथम निदेशक के पद पर आसीन कराया जिस पर वे जीवन पर्यन्त 1956 तक बने रहे।
      महात्मा गॉधी के प्रशंसक होते हुए भी प्रोफेसर साहा देश के नव निर्माण में उनकी चरखा नीति के सख्त विरोधी थे।वे देश के तीव्र विकास के लिए रूस की तर्ज पर एक औद्योगिक क्रान्ति के प्रबल पक्षधर थे।स्वतंत्र भारत के प्रधानमंत्री बनने के पहले जेल से लिखी गयी अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘भारत एक खोज’ में नेहरू जी ने औद्योगिक विकास का जो मॉडल प्रस्तुत किया था वह साहा के विचारों से काफी मेल खाता था मगर बाद के वर्षों में कार्यवन्यन को लेकर दोनो लोगों में काफी मतभेद रहा। प्रोफेसर साहा 1938 39 में नेहरू जी की अध्यक्षता वाले राष्ट्रीय योजना आयोग के सदस्य तथा 1952 में डाक्टर राधाकृष्णन की अध्यक्षता वाले विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग के सदस्य रहे मगर अपनी संस्तुतियों को लेकर कभी संतुष्ट नही रहे।वे 1951 के गणतंत्र भारत के प्रथम चुनाव में स्वतंत्र प्रत्याशी के रूप में कांग्रेस प्रत्याशी को भारी मतों से हराकर लोकसभा में पहुॅचे थे और योजना तथा विकास के मुद्दों पर सरकार की खिंचाई करने का कोई अवसर नही छोड़ते थे।
      अपने खगोलीय ज्ञान का उपयोग साहा ने कैलेण्डर के सुधार के लिए भी किया।इस सुधार को मूर्त रूप देने के लिए उन्होने भारत तथा विश्व के कई दर्जन पंचांग एवं कैलेण्डर का गहन अध्ययन किया था।हिन्दू पंचांग को सरल करने के लिए उनका सुझाव था कि मध्य भारत में एक स्थान का चुनाव करके सभी तरह की ज्योतिष गणना उसी स्थान को केन्द्र मानकर करनी होगी जिससे देश के विभिन्न भागों के लिए बनाये गये अलग अलग पंचांग की झंझट दूर की जा सके।उन्होने निम्नलिखित विशेषताओं वाला विश्व कैलेण्डर भी बनायाः
·       प्रत्येक वर्ष एक ही प्रकार के चार चतुर्थांस में बॉटा गया है
·       प्रत्येक चतुर्थांस में 3 माह या 13 सप्ताह या 91 दिन होते हैं
·      प्रत्येक चतुर्थांस का पहला दिन रविवार एवं आखिरी दिन शनिवार होता है
·      प्रत्येक वर्ष का 365 वां दिन विश्व दिवस के रूप में छुट्टी का दिन होगा
·      लीप वर्ष में विश्व दिवस के अलावा लीप दिवस के रूप में छुट्टी का दिन 31 जून होगा 


अन्तिम प्रयाण

प्रोफेसर साहा को 1956 के आरम्भ से ही उच्च रक्तचाप की वजह से स्वास्थ्य की खतरनाक समस्याएं आने लगीं थीं।डाक्टरों की आराम करने की सलाह को वे हॅस कर टाल जाते थे।वे 14 फरवरी  को अपने पुराने मित्र प्रशान्त महालानोबीस से मिलने के लिए योजना भवन जाते समय अचानक मूच्छित हो गये और फिर उस चिर निद्रा से कभी वापस नही आये।
      साहा का जीवन वृतांत कई माने में बच्चों और नवयुवकों के लिए प्रेरणा स्त्रोत है।कठिन परिस्थितियों में भी वे अपने उदेश्य की पूर्ति के लिए सतत प्रयत्नशील रहे।वैज्ञानिक शोध को मानव के कल्याण के लिए उपयोग करना उनकी प्राथमिकता थी।वे प्रयोगशाला में कठिन परिश्रम करने के साथ ही बाढ़ के राहत कार्य जैसे शारीरिक श्रम में भी बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेने से परहेज नही करते थे।देश का विकास तथा भारत की गरीब जनता का दुःख दूर करना उनके लिए उतना ही महत्वपूर्ण था जितना ब्रह्मांड के तारों के बारे में जानकारी प्राप्त करना।शायद उनके विचारों से तारतम्य न बैठा पाने वाले लोगों को सहन करने की उनकी क्षमता कुछ कम थी मगर ऐसे प्रखर व्यक्ति के लिए यह दोष नही माना जाना चाहिए।प्रोफेसर मेघनाद साहा भारत की गौरवमयी गाथा की एक महान विभूति के रूप में हमेशा याद किये जायेंगे।


आभार


इस लेख को पूरा करने में स्वर्गीय प्रोफेसर देवेन्द्र कुमार राय से स्पेक्ट्रोस्कोपी के बारे में. डाक्टर श्रवण कुमार तिवारी से भाषा एवं डाक्टर हरिश्चन्द्र से साहा संस्थान के बारे महत्वपूर्ण सहयोग प्राप्त हुआ जिसके लिए मैं इनका ऋणी हूॅ।


सन्दर्भ


1    जी वेंकेटरामन “साहा ऐण्ड हीज फार्मूला” यूनिवर्सिटी प्रेस हैदराबाद 
(1997)
2    शांतिमय चटर्जी एवं एनाक्षी चटर्जी “मेघनाद साहा” नेशनल बुक 
ट्रस्ट नई दिल्ली (1970)

3    डी एस कोठारी “बायोग्रफिकल मेम्वायर्स खण्ड 2” नेशनल इंस्टिच्यूट ऑफ साइंसनई दिल्ली  (1970)

4    कलकत्तावेब

5    विज्ञान प्रसार साइन्स पोर्टल

6    डी एस कोठारी “बायोग्राफिकल मेम्वायर्स ऑफ द फेलोज ऑफ रॉयल सोसायटी”  खण्ड 5 पृष्ट 217  (1959)         

7    इनसाइकोप्लिडिया ब्रिटानिका                        
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